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________________ तत्त्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार [ ६।११ $१२-१६. आवरण के अत्यन्त संक्षय होनेपर केवलज्ञान और केवलदर्शन सूर्यके प्रताप और प्रकाशकी तरह प्रकट हो जाते हैं अतः इनमें तुल्य कारणों से आस्रव मानना है । सावरण व्यक्तिके ज्ञान और दर्शनकी क्रमशः प्रवृत्ति होती है । जैसे गरम जलमें वर्तमा । अग्निका ताप प्रकट है प्रकाश प्रकट नहीं है और प्रदीपके प्रकाशमें प्रकाश प्रकट है प्रताप प्रकट नहीं है उसी तरह छद्मस्थके जब ज्ञानोपयोग होता है तब दर्शनोपयोग नहीं होता और जब दर्शनो पयोग होता है तब ज्ञानोपयोग नहीं। जैसे मेघपलटके हटने पर सूर्यका जहाँ प्रकाश है वहाँ प्रताप है और जहाँ प्रताप है वहाँ प्रकाश है उसी तरह निरावरण अचिन्त्य - माहात्म्यशाली केवली सूर्यके समस्त विषयक ज्ञान और दर्शन होते हैं, जहाँ ज्ञान है वहाँ दर्शन है और जहाँ दर्शन है वहाँ ज्ञान है। अतः यह शंका निर्मूल हो जाती है कि- "ज्ञान अस्पृष्ट और अविषयमें भी प्रवृत्ति करता है पर दर्शन स्पृष्ट और विषयमें ही। चूँकि अतीत और अनागत विनष्ट और अनुत्पन्न होने पृष्ट और विषय नहीं हो सकते अतः तद्विषयक ज्ञान ही हो सकता है दर्शन नहीं । अतः केवलीको अतीतानागतदर्शी नहीं कह सकते"; जैसे केवली असद्भूत और अनुपदिष्टको जानते हैं उसी तरह देखते भी हैं इसमें क्या बाधा है ? जैसे सावरण को अस्पृष्ट और अविषयमें बिना उपदेश के ज्ञान नहीं होता क्या उसी तरह केवलीको भी मानते हो ? यदि नहीं, तो जैसे सावरण व्यक्तिको स्पृष्ट और विषय में दर्शन होता है उस तरह केवलीके नहीं माना जा सकता । अतः harat त्रिकाल गोचर दर्शन मानना उचित है । ७१४ ११७. यद्यपि अवधिज्ञानीके आवरण है फिर भी अवधिदर्शनावरणका क्षयोपशम अन्य कारणोंकी अपेक्षा नहीं करता अतः विना उपदेशके ही अवधिदर्शनकी केवल दर्शनकी तरह अतीत और अनागतमें भी प्रवृत्ति होती है अतः अस्पृष्ट और अविषयका भी अवधिदर्शन सिद्ध है । १८ - १९. चूँकि चार ही दर्शनावरण बताये हैं, इस लिए मनःपर्यय दर्शनावरणका क्षयोपशमरूप निमित्त न होनेसे मनःपर्यय दर्शन नहीं होता । मन:पर्ययज्ञान अवधिज्ञान की तरह स्वमुखसे विषयोंको नहीं जानता किन्तु परकीय मनप्रणालीसे जानता है । अतः मन जैसे अतीत और अनागत का विचार-चिन्तन तो करता है, देखता नहीं है उसी तरह मन:पर्ययज्ञानी भी भूत और भविष्य को जानता है, देखता नहीं । वह वर्तमान भी मनको विषयविशेषाकार से जानता अतः सामान्यावलोकन पूर्वक प्रवृत्ति न होनेसे मनः पर्ययदर्शन नहीं बनता । २०. अथवा, ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवके कारण भिन्न-भिन्न ही समझने चाहिए क्योंकि विषयभेदसे प्रदोष आदि भिन्न हो जाते हैं। ज्ञानविषयक प्रदोष आदि ज्ञानावरण के और दर्शनविषयक प्रदोष आदि दर्शनावरणके आस्रवके कारण होते हैं। इसी तरह आचार्य और उपाध्याय के प्रतिकूल चलना, अकाल अध्ययन, अश्रद्धा, अभ्यासमें आलस्य करना, अनादरसे अर्थ सुनना, तीर्थोपरोध- दिव्यंध्वनि के समय स्वयं व्याख्या करने लगना, बहुश्रुतपनेका गर्व, मिथ्योपदेश, बहुश्रुतका अपमान करना, स्वपक्षका दुराग्रह, स्वपक्षके दुराग्रहवश असम्बद्ध प्रलाप करना, सूत्र विरुद्ध बोलना, असिद्धसे ज्ञान प्राप्ति, शास्त्रविक्रय और हिंसा आदि ज्ञानावरणके आस्रवके कारण हैं । दर्शनमात्सर्य, दर्शनअन्तराय, आँखें फोड़ना, इन्द्रियों के विपरीत प्रवृत्ति, दृष्टिका गर्व, दोर्घनिद्रा, दिन में सोना, आलस्य, नास्तिकता, सम्यग्दृष्टिमें दूषण लगाना, कुतीर्थ की प्रशंसा, हिंसा और यतिजनोंके प्रति ग्लानिके भाव आदि भी दर्शनावरणके आस्रवके कारण हैं । इस तरह इनके आस्रवके कारणों में भेद हैं। असातावेदनीयके आस्रवके कारण दुःखशोकता पाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थानान्यसद्वेद्यस्य ॥११॥
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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