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________________ ५।२३] पाँचवाँ अध्याय काल कहा था और अब 'क्रियासमूह'को काल कहते हो। फिर, क्षणिक क्रियाओंका समूह भी नहीं बन सकता। जो वर्तनालक्षण काल भिन्न मानते हैं उनके मतमें तो प्रथम समयवाली क्रियाकी वर्तनासे प्रारम्भ करके द्वितीय आदि समयवर्ती क्रियाओंकी द्रव्यदृष्टिसे स्थिति मानकर समूहकल्पना कर ली जाती है, और उस क्रियासमूहसे बननेवाले घटादिकी समाप्ति तक 'घट क्रिया हो रही है। यह वर्तमानकालिक प्रयोग कर दिया जाता है। यदि भिन्न रूपसे उपलब्ध न होनेके कारण कालका अभाव किया जाता है तो क्रिया और क्रियासमूहका भी अभाव हो जायगा । कारकों की प्रवृत्तिविशेषको क्रिया कहते हैं। प्रवृत्तिविशेष भी कारकोंसे भिन्न उपलब्ध नहीं होता जैसे टेढ़ापन सर्प से जुदा नहीं है उसी तरह क्रियावयवोंसे भिन्न कोई क्रिया नहीं है अतः क्रिया और क्रियासमूह दोनोंका अभाव ही हो जायगा। क्रियासे क्रियान्तरका परिच्छेद भी नहीं हो सकता, क्योंकि स्थिर प्रस्थ आदिसे ही स्थिर ही गेहूँ आदिका परिच्छेद देखा जाता है। परन्तु जब क्रिया क्षणमात्र ही ठहरती है; तो उससे अन्य क्रियाओंका परिच्छेद कैसे किया जा सकता है ? स्वयं अनवस्थित पदार्थ किसी अन्य अनवस्थितका परिच्छेदक नहीं देखा गया । 'प्रदीप अनवस्थित होकर अनवस्थित परिस्पन्दका परिच्छेदक होता है तभी तो 'प्रदीपवत् परिस्पन्दः' यह प्रयोग होता है, यह कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि प्रदीप या परिस्पन्दको हम सर्वथा क्षणिक नहीं मानते, कारण कि उसके प्रकाशन आदि कार्य अनेकक्षणसाध्य होते हैं। समूहमें परिच्छेद्य-परिच्छेदकभाव भी नहीं बनता; क्योंकि क्षणिकोंका समूह ही नहीं बन सकता। प्रश्न-जैसे क्षणिक वर्णध्वनियोंका समुदाय पद और वाक्य बन जाता है उसी तरह क्रियाका समूह भी बन जायगा। उत्तर-वर्णध्वनियोंका क्षणिकत्व ही असिद्ध है क्योंकि देशान्तरवर्ती श्रोताओंको वे सुनाई देती हैं। शब्दान्तरकी उत्पत्तिके द्वारा देशान्तरवर्ती श्रोताओंको सुनाई देनेका पक्ष भी ठीक नहीं हैं; क्योंकि जिस क्षणमें ध्वनि उत्पन्न हुई उसी क्षणमें तो अन्यध्वनिको उत्पन्न नहीं करती, और अगले क्षण में स्वयं असत् हो जाती है। जिसकी सदवस्था समीप है उस क्षगको उत्पत्ति-काल कहते हैं, पर जिसका उत्तर कालमें सत्त्व नहीं हैं उसमें उत्पत्ति व्यवहार नहीं हो सकेगा। पूर्व पूर्वज्ञानौसे प्राप्त संस्कारोंकी आधारभूत बुद्धिमें समुदायकी कल्पना भी नहीं हो सकती क्योंकि बुद्धि भी क्षणिक है । जिसके मतमें द्रव्य दृष्टिसे क्रिया नित्य है और पर्याय दृष्टिसे अनित्य उसीके मतमें बुद्धि भी नित्यानित्यात्मक होकर ही संस्कारोंका आधार हो सकती है और ऐसी बुद्धिमें हो शक्ति और व्यक्ति रूपसे व्यवस्थित क्रिया समहके द्वारा, जिसमें कि कालकृत वर्तनासे 'काल' व्यपदेश प्राप्त हो गया है, अन्यपरिच्छेदकी वृत्ति की जा सकता है । इस तरह व्यवहारकाल सिद्ध हो जाता है, और व्यवहारकालके द्वारा मुख्यकाल सिद्ध हो जाता है। २८. परत्वकी अपेक्षा अपरत्व और अपरत्वकी अपेक्षा परत्व होता है, अतः इनका पृथक् ग्रहण किया है। २९. 'वर्तना'का ग्रहण सर्वप्रथम इसलिए किया है कि वह अभ्यहित है। परमार्थ काल की प्रतिपत्ति वर्तनासे होती है अतः यह पूज्य है। अन्य परिणाम आदि व्यवहार कालके लिंग हैं, अतः अप्रधान हैं । . बौद्ध जीवको पुद्गल शब्दसे कहते हैं अतः पुद्गलकी परिभाषा करते हैं स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥२३॥ स्पर्श रस गन्ध और वर्णवाले पुद्गल हैं। ११-५. सभी रूप रसादि विषयोंमें स्पर्श सवल है क्योंकि स्पृष्टयाही इन्द्रियों में स्पर्शकी शीघ्र अभिव्यक्ति होती है तथा सभी संसारी जीवोंके यह ग्रहणयोग्य होता है। इसीलिए
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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