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________________ ५।१०-११] पाँचवाँ अध्याय ६६७ ६३-५. अनन्त होनेसे अज्ञेयकी आशंका भी उचित नहीं; क्योंकि वह अतिशयज्ञानशाली सर्वज्ञके द्वारा दृष्ट होता है। ये प्रश्न भी उचित नहीं हैं कि 'यदि अनन्तको सर्वज्ञने जाना है तो अनन्तका ज्ञानके द्वारा अन्त जान लेनेसे अनन्तता नहीं रहेगी और यदि नहीं जाना है तो सर्वज्ञता नहीं रहेगी; क्योंकि सर्वज्ञका क्षायिकज्ञान अनन्तानन्त है, उसके द्वारा अनन्तका अनन्तके रूप में ही ज्ञान हो जाता है। अन्य लोग सर्वशके उपदेशसे तथा अनुमानसे अनन्त ज्ञान कर लेते हैं । सर्वज्ञने अनन्तको अनन्तरूपसे हो जाना है, अतः मात्र सर्वज्ञके द्वारा ज्ञात होनेसे उसमें सान्तत्व नहीं आ सकता । प्रायः सभी वादी अनन्त भी मानते हैं और सर्वज्ञ भी । बौद्ध लोकधातुओंको अनन्त कहते हैं। वैशेषिक दिशा काल आकाश और आत्माको सर्वगत होनेसे अनन्त कहते हैं। सांख्य प्रकृति और पुरुषको सर्वगत होनेसे अनन्त कहते हैं। इन सबका परिज्ञान होने मात्रसे सान्तता नहीं हो सकती। अतः अनन्त होनेसे अपरिज्ञानका दूषण ठीक नहीं है । यदि अनन्त होनेसे पदार्थको अज्ञेय कहा जायगा तो सर्वज्ञका अभाव हो जायगा ; क्योंकि ज्ञेय अनन्त हैं, अतः कोई उनको जान ही नहीं सकेगा। यदि पदार्थोंको सान्त माना जाता है तो संसार और मोक्ष दोनोंका लोप हो जायगा। यदि जीवोंको सान्त माना जाता है। तो जब सब जीव मोक्ष चले जायँगे तब संसारका उच्छेद हो हो जायगा। यदि संसारोच्छेदके भयसे मुक्त जीवोंका पुनः संसारमें आगमन माना जाय तो मोक्षका भी उच्छेद हो जायगा। एक एक जीवमें कर्म और नोकर्म पुद्गल अनन्त हैं। यदि उन्हें सान्त माना जाय तो भी संसार और मोक्ष दोनोंका उच्छेद हो जायगा। इसी तरह अतीत और अनागतकालको सान्त माना जाय तो पहिले और बादमें कालव्यवहारका अभाव ही हो जायगा। पर यह युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि असतूकी उत्पत्ति और सतका सर्वथा विनाश दोनों ही अयुक्तिक हैं। इसी तरह आकाशको सान्त माननेपर उससे आगे कोई ठोस पदार्थ मानना होगा। यदि नहीं तो आकाश ही आकाश माननेपर सान्तता नहीं रहेगी। पुद्गलोंकी प्रदेश संख्या संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १० ॥ पुद्गलोंके संख्यात असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं। ६१-२. च शब्द से 'अनन्त' का समुच्चय कर लेना चाहिए। अनन्त कहनेसे परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त तीनोंका ग्रहण हो जाता है। ६३-६. प्रश्न-जब लोक असंख्यात प्रदेशी है, तब उसमें अनन्तानन्त प्रदेशी पुल स्कन्ध कैसे समा सकते हैं ? यह तो विरोधी बात है। उत्तर - पुद्गलोंके सूक्ष्म परिणमन और. आकाशकी अवगाहनशक्तिसे अनन्तानन्त पुद्गलोंका अवगाह हो जाता है । फिर यह कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है कि छोटे आधारमें बड़ा द्रव्य ठहर ही नहीं सकता हो। पुदलो विशेष प्रकारका सघन संघात होनेसे अल्पक्षेत्रमें बहुतोंका अवस्थान हो जाता है। जैसे कि छोटीसी चंपाकी कलीमें सूक्ष्मरूपसे बहुतसे गन्धावयव रहते हैं, पर वे ही जा फैलते हैं तो समस्त दिशाओंको व्याप्त कर लेते हैं । जैसे कि कंडा या लकड़ीमें जो पुद्गल सूक्ष्मरूपसं अल्पक्षेत्र में थे वे ही आगसे जलने पर धूमके रूपमें बहुत आकाशको व्याप्त कर लेते हैं। इसी तरह संकोच और विस्तार रूप परिणमनसे अल्प लोकाकाशमें भी अनन्तानन्त जीवपुद्गलांका अवस्थान हो जाता है। नाणोः ॥ ११॥ . अणुके अन्य प्रदेश नहीं होते। १-३. जैसे आकाशका एक प्रदेश अन्य प्रदेश न होनसे अप्रदशी है उसी तरह अणुकं भी प्रदेशमात्र होनेसे अन्य प्रदेश नहीं है। अणुसे छोटा तो कोई भाग होता नहीं, अतः स्वयं
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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