SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श] पाँचवाँ अध्याय ६६५ ख्यातप्रदेशी होनेपर भी संकोचविस्तारशील होनेसे कर्मके अनुसार प्राप्त छोटे या बड़े शरीरमें तत्प्रमाण होकर रहता है। जब इसकी समुद्घात कालमें लोकपूर्ण अवस्था होती है तब इसके मध्यवर्ती आठ प्रदेश सुमेरु पर्वतके नीचे चित्र और वनपटलके मध्यके आठ प्रदेशोंपर स्थित हो जाते हैं, बाकी प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर फैल जाते हैं। . ६५-६. एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है, वह घटकी तरह संयुक्तद्रव्य नहीं है फिर भी उसमें प्रदेश वास्तविक हैं उपचारसे नहीं। घटके द्वारा जो आकाशका क्षेत्र अवगाहित किया जाता है वही अन्य पटादिके द्वारा नहीं। दोनों जुदे-जुदे हैं। यदि प्रदेशभिन्नता न होती तो वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता था। अतः द्रव्य अविभागी होकर भी प्रदेशशून्य नहीं है। वह घटादिकी तरह द्रव्यविभागवाला-सावयव भी नहीं है अतः अविभागी निरवयव और अखंड मानने में कोई बाधा नहीं है। ६७-६. जीव अनन्त हैं अतः 'एकजीव' का असंख्यातप्रदेशित्व बतानेके लिए 'एक' पद दिया है । नाना जीवोंकी अपेक्षा तो अनन्त प्रदेश हो सकते हैं । द्रव्योंसे प्रदेशोंका कथञ्चित् भेद होनेसे षष्ठी विभक्ति-द्वारा 'धर्माधर्मकजीवानाम्' यह भेदनिर्देश कर दिया है। 'असंख्येयप्रदेशाः' ऐसा लघुनिर्देश न करके 'प्रदेशाः' का पृथक् निर्देश इसलिए किया है कि उसका सम्बन्ध आगेके सूत्रोंमें होता जाय। यदि 'असंख्येयप्रदेशाः' ऐसा द्रव्यप्रधान निर्देश करते तो 'प्रदेश' पद गौण हो जानेसे आगे उसका सम्बन्ध नहीं हो पातो।। १०-१३. माणवकमें सिंहकी तरह धर्मादि द्रव्योंमें प्रदेशकल्पना औपचारिक नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार करता. शूरता आदि गुणवाले पन्चेन्द्रिय तिर्यंचमें सिंह शब्द मुख्य रूपसे तथा सादृश्यकी अपेक्षा माणवकमें गौणरूपसे दो प्रकारके प्रत्ययोंका उत्पादक प्रसिद्ध है उस तरह धर्मादि और पुद्गलादिमें होनेवाले 'प्रदेशवत्त्व' प्रत्ययमें कोई भेद नहीं दिखाई देता। सिंहमें मुख्य सिंह प्रत्यय होनेसे माणवकमें गोणकल्पना हो भी सकती है। पर यहाँ ऐस है । जब केवल सिंह शब्दका प्रयोग होता है तब मुख्य प्रदेशोंका बोध होता है तथा जब सोपपद अर्थात् माणवकसिंहकी तरह किसी अन्यपदसे युक्तका प्रयोग होता है तब गौण व्यवहार किया जाता है। किन्तु यहाँ जैसे 'घटके प्रदेश' प्रयोग होता है वैसे ही 'धर्मादिके प्रदेश' यह भी सोपपद ही प्रयोग होता है, अतः कोई विशेषता नहीं है। सिंहगत क्रौर्यादि धोका एकदेश सादृश्य देखकर माणवकमें किया जानेवाला 'सिंह व्यवहार' गौण हो सकता है किन्तु पुद्गल और धर्मादिमें सभीके स्वाधीन मुख्य ही प्रदेश हैं अतः उपचार कल्पना नहीं बनती। १४. प्रश्न-यदि घटादिकी तरह धर्मादिके भी मुख्य ही प्रदेश होते तो घटादिके ग्रीवा पैंदा आदिकी तरह स्वतः उनमें भी प्रदेशवान्की तरह व्यवहार होना चाहिए द्रव्यान्तरसे नहीं। धर्मादि द्रव्योंमें प्रदेशव्यवहार पुद्गल परमाणुके द्वारा रोके गये आकाश प्रदेशके नापसे होता है। अतः मानना चाहिए कि उनमें मुख्य प्रदेश नहीं है। उत्तर-चूंकि धर्मादि द्रव्य अतीन्द्रिय हैं, परोक्ष हैं, अतः उनमें मुख्यरूपसे प्रदेश विद्यमान रहने पर भी स्वतः उनका ज्ञान नहीं हो पाता । इसलिए परमाणुके नापसे उनका व्यवहार किया जाता है। ६ १५. अर्हन्तके द्वारा प्रणीत गणधरके द्वारा अनुस्मृत तथा आचार्योंकी परम्परासे प्राप्त श्रुत-आगममें इन सब द्रव्योंके प्रदेशोंका वर्णन इस प्रकार मिलता है-“एक एक आत्म-प्रदेशमें अनन्तानन्त ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रदेश ठहरे हैं । एक एक कर्मप्रदेशमें अनन्तानन्त औदारिकादि शरीरोंके प्रदेश हैं। एक एक शरीरप्रदेशमें अनन्तानन्त विस्रसोपचय परमाणु गीले गुड़में धूलकी तरह लगे हुए हैं।" इसी तरह धर्मादि द्रव्योंमें भी मुख्य प्रदेश जानना चाहिए।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy