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________________ ६६२ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [श६-७ अभेदमें भी 'मतुप' आदि प्रत्ययोंके द्वारा भेदपरक निर्देश भी देखा जाता है जैसे कि 'आत्मवान् आत्मा' 'सारवान् स्तम्भः यहाँ। यहाँ आत्मासे भिन्न कोई आत्मत्व या स्तम्भको छोडकर अन्य सार नहीं पाया जाता। उसी तरह 'रूपिणः' यह निर्देश अभेदमें भी बन जाता है। ६७. परमाणु और स्कन्ध आदिके भेदसे अनेक प्रकारके पुदल द्रव्योंकी सूचना देनेके लिए 'पुद्गलाः' यहाँ बहुवचन दिया है। आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ६॥ आकाशपर्यन्त अर्थात् धर्म अधर्म और आकाश ये एक द्रव्य हैं। ६१. 'आ' का प्रयोग अभिविधि अर्थात् अभिव्याप्तिके अर्थमें किया गया है, इससे आकाशका भी ग्रहण हो जाता है । यदि मर्यादा अर्थमें होता तो आकाशसे पहिले पहिलेके द्रव्योंका ग्रहण होता, आकाशका नहीं। ६२-३ एक शब्द संख्यावाची है। चूंकि धर्म अधर्म और आकाश तीन द्रव्योंके एक एकपनेका निर्देश करना है, अतः सूत्रमें द्रव्य शब्दका बहुवचनके रूपमें निर्देश किया है। ६४-६. प्रश्न-'आ आकाशादेकैकम्' ऐसा लघुसूत्र बनानेसे भी कार्य चल सकता है, द्रव्य तो प्रसिद्ध ही है, अतः द्रव्यका अन्वय हो ही जायगा, फिर सूत्रमें द्रव्यपद निरर्थक है ? उत्तर-केवल 'एकैकम्' कहनेसे यह पता नहीं चलता कि ये किस अपेक्षा एक कहे जा रहे हैं-द्रव्य क्षेत्र काल या भावसे ? अतः असन्दिग्ध रूपसे 'द्रव्यकी अपेक्षा' का सूचन करनेके लिए 'द्रव्य पद देना सार्थक ही है। अतः गति स्थिति आदि परिणामवाले विविध जीव पदलोंकी गति आदिमें निमित्त होनेसे भावकी अपेक्षा, प्रदेशभेदसे क्षेत्रकी अपेक्षा, तथा कालभेदसे कालकी अपेक्षा अनेकत्व होनेपर भी धर्मादि एक एक ही द्रव्य हैं जीव और पुद्गल आदिकी तरह अनेक नहीं हैं। यदि जीव और पुदलोंको एक एक द्रव्य माना जायगा तो क्रियाकारकका भेद, संसार और मोक्ष आदि नहीं हो सकेंगे। निष्क्रियाणि च ॥ ७ ॥ ये धर्मादिद्रव्य निष्क्रिय हैं। ६१-२. बाह्य और आभ्यन्तर दोनों कारणोंसे होनेवाली द्रव्यको उस पर्यायको क्रिया कहते हैं जो एक देशसे देशान्तर प्राप्तिमें कारण होती है। उभय कारणोंका ग्रहण इसलिए किया है कि क्रिया द्रव्यका सदा वर्तमान स्वभाव नहीं है। यदि होता, तो द्रव्यमें प्रतिक्षण क्रिया होनी चाहिए थी। क्रिया द्रव्यसे भिन्न नहीं है किन्तु क्रियापरिणामी द्रव्यकी पर्याय है। यदि भिन्न हो तो द्रव्य निश्चल हो जायगा । ज्ञानादि या रूपादि गुणोंकी व्यावृत्तिके लिए 'देशान्तरप्राप्तिहेतु' यह विशेषण दिया गया है। क्रिया शब्दसे 'निर' उपसर्गका समास करने पर 'निष्क्रिय' शब्द सिद्ध होता है। ६३. धर्मादि द्रव्योंमें क्रियानिमित्तक उत्पाद और व्यय नहीं होते अतः निष्क्रिय होनेसे उत्पादादिका अभाव करना उचित नहीं है। उत्पाद दो प्रकारका है-स्वनिमित्तक और परप्रत्यय । अनन्त अगुरुलघुगुणोंकी षट्स्थानपतित वृद्धि और हानिसे सभी द्रव्योंमें स्वाभाविक उत्पाद व्यय ह हैं। परप्रत्यय भी उत्पाद व्यय अश्वादिकी गति स्थिति और अवगाहमें निमित्त होनेसे होते हैं। उन पदार्थों में प्रतिक्षण परिणमन होता है अतः उनकी अपेक्षा गति स्थिति और अवगाहनकी हेतुतामें भेद होता रहता है। ६४-६. प्रश्न-क्रियावाले ही जलादि पदार्थ मछली आदिकी गति और स्थितिमें निमित्त देखे गये हैं, अतः निष्क्रिय धर्माधर्मादि गतिस्थितिमें निमित्त कैसे हो सकते हैं ? उत्तर-जैसे देखनेकी
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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