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________________ 87/श्री दान-प्रदीप इस प्रकार गुरु-वचनों को अंगीकार करके वह उद्यमवंत आयम्बिल में तत्पर बनकर उसका पहला पद याद करने लगा। रात-दिन बिना विश्रान्ति के वह उच्च स्वर में रटने लगा। पर जैसे हाथ में पारद (पारा द्रव्य) नहीं टिकता, वैसे ही एक भी पद उसके हृदय में नहीं टिका। उसके रटने के तीव्र घोष को सुनकर अन्य अनेक लघु मुनियों को वह पद याद हो गया, पर उसे याद नहीं हुआ। अतः वे लोग उसकी हँसी उड़ाने लगे। अत्यन्त भूलने के उसके स्वभाव के कारण गुरु उसे बार-बार याद करवाते, पर फिर भी वह अशुद्ध पद का ही उच्चारण करता। गुरु भी उसे पढ़ा-पढ़कर उद्विग्न हो गये। फिर गुरुदेव ने उसे शिक्षा दी-“हे वत्स! अक्षरों के अशुद्ध उच्चारण से श्रुत में दोष लगता है। अतः तेरे द्वारा श्रुत की आशातना होती है। न्यूनाधिक और विपरीत वर्णों का उच्चारण करने से श्रुत की आशातना करता हुआ प्राणी अनेक दुःखों को प्राप्त करता है। अतः हे वत्स! तूं श्रुत का अभ्यास छोड़ दे और जिनागम में तत्त्वभूत ‘मा रुस मा तुस' इन दो पदों का ही रटन कर।" तब वह उन दो पदों को ही रटने लगा, क्योंकि विनयवंत की सभी प्रवृत्तियाँ गुरु के आधीन ही होती हैं। ये दोनों पद प्राकृत भाषा में होने के कारण गोखते-गोखते मन्दबुद्धियुक्त वह एक-एक शब्द भूल जाने से 'मास तुस' पदों का उच्चारण करने लगा। तब लोग उसे मासतुस मुनि के नाम से पुकारने लगे। अशुद्ध बोलने के बावजूद भी उन्होंने दोनों पदों का अर्थ कभी वृथा नहीं किया। अर्थात् कोई उसकी प्रशंसा करता, तो वह हर्ष को प्राप्त नहीं होता था और कोई निन्दा करता, तो वह कुपित नहीं होता था। इस प्रकार तीव्र अध्यवसायों के साथ आयम्बिल तप करते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गये। तब उसका ज्ञानावरणीय कर्म जीर्ण रज्जु की तरह टूट गया। फिर विशिष्ट बुद्धि उत्पन्न होने से उसने चौथे अध्ययन का अभ्यास किया। फिर अनुक्रम से समस्त श्रृत में पारगामी बना। फिर घाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त करके कर्मरहित बनकर मोक्ष को प्राप्त किया। अतः बुद्धिमान पुरुष को उपधान सहित जिनागमों का अभ्यास करना चाहिए। जिससे जिनागम इस भव और परभव में भी सुखपूर्वक प्राप्त हो सके। अनिव-विवेकी मनुष्य को गुरु के पास से श्रुत ग्रहण करके उस गुरु का निसव नहीं बनना चाहिए। पर जिसके पास जिस ज्ञान का अभ्यास किया हो, उस विषय में उसी का नाम स्पष्ट रीति से बताना चाहिए। दूसरों का झूठा नाम बताने से स्वयं का चित्त मलिन बनता है और इस कारण से यत्नपूर्वक सीखी गयी विद्या भी फलदायक नहीं बनती। इस विषय पर दृष्टान्त का श्रवण करो स्तम्भपुर नामक नगर में एक नाई रहता था। उसके औजारों की कोथली विद्या के बल से सदैव आकाश में निराधार रहती थी। अतः वह अत्यधिक प्रसिद्धि को प्राप्त था। यह
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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