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________________ 69 / श्री दान- प्रदीप देशना का प्रारम्भ किया, धन श्रेष्ठी ने प्रणामपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर कहा - "हे पूज्य ! किस कर्म के उदय से मेरा यह पुत्र मूर्ख - शिरोमणि हुआ है? आप कृपया इसी विषय पर धर्मदेशना प्रदान करें, क्योंकि वक्ता की प्रवृत्ति श्रोता के आधीन ही होती है । " तब मुनि ने पूर्वभव में उसके अपमानित होकर गृह त्याग करके दीक्षा अंगीकार करने के साथ ज्ञान की विराधना की सर्व हकीकत विस्तृत रूप में बतायी। फिर उन्होंने कहा - "ज्ञान की अवज्ञा के कारण ही यह मूर्ख - शिरोमणि बना है। ज्ञान की आशातना करने से ज्ञान परभव में प्राप्त नहीं होता । जो बुद्धिमान बहुमानपूर्वक अन्य जनों को ज्ञान का दान करता है, वह परभव में श्रेष्ठ बुद्धिवैभव से सम्पन्न होकर अनेक शास्त्रों का पारगामी बनता है तथा जो अज्ञानतावश ज्ञान और ज्ञानी की अवज्ञा करता है, वह परभव में बुद्धिरहित पुरुषों के मध्य शिरोमणि बनता है। इस विषय में सुबुद्धि और दुर्बुद्धि की कथा सुनो : 1 पृथ्वी के अलंकार के समान क्षितिप्रतिष्ठित नामक एक नगर था । उसमें गुणों के समुदाय शोभित चन्द्रयशा नामक राजा था । उसने चन्द्र के समान उज्ज्वल यश के द्वारा अपना नाम सार्थक किया था। उसके सभी मंत्रियों में मुख्य मतिसार नामक मंत्री था। उस मंत्री के जगत के लोगों को आनन्द प्राप्त करानेवाला सुबुद्धि नामक पुत्र था । वह विशिष्ट बुद्धिवैभव से संपन्न होने के कारण गुरु की साक्षी - मात्र से थोड़े ही समय में संपूर्ण कलाओं को सीख गया था । प्राप्त विषम कार्यों को सिद्ध करनेवाली औत्पत्तिकी आदि चार शुद्ध बुद्धियाँ उसे 'पतिंवरा स्त्रियों की तरह शीघ्र ही प्राप्त हो गयी थी । देखने मात्र से उसकी बुद्धि में न समाये, ऐसा कोई शास्त्र, तंत्र, विद्या या कला नहीं थी । सभी निर्मल विद्याओं में उसकी इतनी कुशलता थी कि बृहस्पति भी उनको अपने कलाचार्य मान बैठते । चारों तरफ से विकास को प्राप्त उसके शुद्ध विचार वर्षाऋतु के मेघों की तरह सर्व लोगों के उपकारक कारणों को पुष्ट करते थे। उस मतिसार मंत्री के एक अन्य भी पुत्र था, जो दुष्कर्म के योग से मूर्ख था, अतः उसका दुर्बुद्धि नामक सार्थक नाम लोक में प्रसिद्ध हुआ था । वह मन्दबुद्धि किसी उपाध्याय के पास पढ़ने लगा। पर चार महिनों में वह बारहाक्षरी भी सीख नहीं पाया । अभवी को उपदेश देने की तरह तथा बंजर भूमि में बोये हुए बीज की तरह उस दुर्बुद्धि को पढ़ाने में कलाचार्यों द्वारा किये गये सर्व उद्यम निष्फल हो गये । बुद्धि के भण्डार और सर्व शास्त्रों में कुशलता को प्राप्त ज्येष्ठ पुत्र सुबुद्धि को और उससे विपरीत कनिष्ठ पुत्र दुर्बुद्धि को देखकर कौन ऐसा होगा, जो कि विस्मय को प्राप्त न होगा? उसी नगर में धन नामक श्रेष्ठ और सम्पदा में कुबेरवत् श्रेष्ठी थे। उनके विनयशील व श्रेष्ठ नीतियुक्त देहड़, बाहड़, भावड़ और सावड़ नामक चार पुत्र थे। वे अनुक्रम से यौवन को प्राप्त हुए । अतः पिता ने उनका विवाह कुलीन कन्याओं के साथ कर दिया। फिर उनकी
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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