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________________ 62/श्री दान-प्रदीप इन महात्मा को प्रणाम करके मैं मेरा जन्म सफल करूं।" इस प्रकार विचार करके विशुद्ध बुद्धि व भक्तिपूर्वक उसने मुनिराज को नमन किया। उस समय मुनि ने ध्यान पूर्ण करके पुण्य को पुष्ट करनेवाली और पापसमूह को दग्ध करनेवाली धर्मलाभ रूपी आशीष देकर उसे प्रसन्न किया। कहा भी है कि : देवस्य दर्शनात्तुष्टिराशीर्वादाद्गुरोः पुनः। प्रभोस्तु दानसंमानात्कस्यापि किमपीष्यते।। भावार्थ :-मनुष्य देवदर्शन से प्रसन्न होता है, गुरु के आशीर्वाद से प्रसन्न होता है और स्वामी के दान-सन्मान से प्रसन्न होता है। हर किसी के प्रसन्न होने का कोई न कोई कारण अवश्य होता है।। नमस्कार करके पास बैठे हुए विजय को मुनि ने धर्मोपदेश दिया, क्योंकि साधु के पास अन्यों को देने के लिए यही एक वस्तु होती है। सर्वज्ञों के द्वारा संसार सागर को पार करने के लिए नाव के समान एकमात्र धर्म ही साधन कहा गया है। आत्महित को चाहनेवाले के लिए सभी अवस्थाओं में धर्म ही सेवन के योग्य है। धर्म ही दुष्ट कर्म रूपी वृक्ष को भस्म करने में दावाग्नि के समान है। सभी प्रकार के सुख रूपी उद्यान को प्रफुल्लित करने में वर्षाऋतु के मेघ के समान है। धर्म पिता की तरह प्राणियों का पोषण करता है, माता की तरह रक्षण करता है, भ्राता की तरह सहायता करता है, मित्र की तरह स्नेह करता है। उस धर्म को पण्डित-पुरुषों ने श्राद्धधर्म और साधुधर्म के रूप में दो प्रकार का बताया है। उनमें से पहले प्रकार का श्राद्धधर्म देश से पाप-व्यापार का त्याग करनेवाले गृहस्थाश्रमियों के लिए कहा गया है। उस धर्म का सेवन सन्तोषी और धनिक पुरुष सुखपूर्वक कर सकते हैं। पर असन्तोषी और निर्धन पुरुष उसका सेवन दुःखपूर्वक करते हैं। यह धर्म बीच-बीच में देवादि भव को प्राप्त करवाकर अनुक्रम से मुक्ति-लाभ को प्राप्त करवाता है। दूसरे प्रकार का धर्म सर्व पाप का त्याग करनेवाले साधु-पुरुषों को होता है। उस प्रकार की कालादि सामग्री के योग से वह धर्म उसी भव में मोक्ष को प्राप्त करवा सकता है। अगर वैसी सामग्री का अभाव हो, तो इन्द्र तथा चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि भी प्राप्त करवाता है। इस साधुधर्म के द्वारा ऐश्वर्यादि से रहित होने पर भी राजादि के द्वारा पूज्य होता है। इसी कारण से सर्वज्ञों ने इसे प्रधान धर्म कहा है। समुद्र के समान अपार इस संसार को जो तैरना चाहता है, उसे नौका के समान इस सर्वविरति धर्म को अंगीकार करना चाहिए। चक्रवर्ती भी छ: खण्ड की ऋद्धि-समृद्धि का तृणवत् त्याग करके दीक्षा को अंगीकार करते हैं, तो इस दीक्षा की तुलना किसके साथ की जा सकती है? यह साधुधर्म शुरुआत में तो नीम की औषधि की तरह
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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