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________________ 54/श्री दान-प्रदीप आपत्ति का स्थान है और अधिक बलवान के सामने नम जाना स्वयं की विशेष संपत्ति का कारण है। ऐसा विचार करके आपको जो उचित प्रतीत होता हो, वही करें।" यह सुनकर सेवाल राजा ने कहा-“हे दूत! जो रण में कायर होता है, वही राजा नीतिमार्ग का आश्रय लेकर विचार करता है, पर जिसकी भुजाओं में रणसंग्राम की खुजाल चलती हो, उसे नीति के प्रति कुछ भी प्रीति नहीं होती। मदोन्मत्त हाथियों के समूह का नाश करने के लिए क्या सिंह को भी किसी नीति के विचार की जरुरत है? शीघ्र ही युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। रणक्षेत्र में मेरी ये भुजाएँ स्वयं ही बल की अधिकता या न्यूनता बता देगीं।" । इस प्रकार कहकर बलशाली सेवाल राजा ने उस दूत को तत्काल विदा किया। दूत ने आकर कुमार को सारी बात बतायी। यह सुनकर विजय कुमार ने भी युद्ध की भेरी बजवा दी। सम्पूर्ण सैन्य तुरन्त ही तैयारी के साथ रणभूमि में पहुँचा। सेवाल नामक शत्रु राजा ने भी सम्पूर्ण तैयारी के साथ सैन्य को युद्धभूमि में उतारा और स्वयं भी शस्त्रों से सज्ज होकर कुमार के सन्मुख आया। सबसे पहले सैन्यों के गर्व से उद्धत हुए सुभट 'अहंपूर्विका द्वारा द्वन्द्व युद्ध करने लगे। रथिक रथिकों के साथ, सादी सादियों के साथ, यंता यंताओं के साथ और 'पदाति पदातियों के साथ युद्ध करने लगे। कितने ही योद्धा भालों के साथ, कितने ही योद्धा खड्ग के साथ और कितने ही योद्धा बाणों के साथ युद्ध करने लगे। उग्र सुभटों के भुजदण्डों की खुजाल को मिटाने में कुशल व कायर पुरुषों के लिए देखने में भी अत्यधिक कष्टदायक महा-भयंकर संग्राम हुआ। उसके बाद भी दैवयोग राजपुत्र की सेना पराजय प्राप्त करके भागने लगी, क्योंकि पराजित हो जाने के बाद पलायन के सिवाय दूसरा कोई बल नहीं है। पर फिर भी महापराक्रमी कुमार युद्ध करता ही रहा। प्रधानों ने न चाहते हुए भी उसे जबरन वापस मोड़ा। पर लज्जा के कारण वह वापस अपने नगर की तरफ नहीं गया। मन में अत्यन्त दुःखित होते हुए वह वहीं कहीं जंगल में ही रह गया। उधर अपने मन में अपने आपको "जितकाशी मानते हुए शत्रु राजा सेवाल निर्भयतापूर्वक अपने स्थान पर आया। सारा वृत्तान्त सुनकर दुःखित राजा ने बुद्धिनिधान प्रधानों को भेजकर किसी तरह समझा-बुझाकर पुत्र को तत्काल नगर में बुलवाया। फिर राजा ने स्वयं शत्रु को परास्त करने 1. मैं पहले-मैं पहले-ऐसी उतावली के द्वारा। 3. हाथी पर सवार। 2. घुड़सवार। 4. पैदल सेना।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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