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________________ 44/श्री दान-प्रदीप बनवाओ, उनमें जिनेश्वरों की प्रतिमा की स्थापना करवाओ, चार प्रकार के संघ की पूजा करो, जिनप्रतिमा की पूजा करो, मुनियों को आहारादि के द्वारा प्रतिलाभित करो, दीनों को दान दो, तीर्थयात्रा करना, पुस्तकें लिखवाओ, ऐसे कार्यों में खर्च किया हुआ धन इस भव में कीर्ति आदि का कारण होता है और परभव में स्वर्ग तथा मोक्ष की लक्ष्मी प्राप्त करने में कारणभूत होता है। इस प्रकार ठगने में कुशल वे मुनि चतुर वचनों के द्वारा मुझे ठगकर मुझसे खर्च करवायेंगे और थोड़े ही समय में मेरा धन खत्म करवा देंगे। पर जिनेश्वर देव को वंदन करने से वे कुछ भी पंचायती नहीं करेंगे। अतः तेरे वचनों का मान रखते हुए मैं हमेशा चैत्य में जिनेश्वरों को नमस्कार करके बाद में भोजन करूंगा। यह मेरा जिन्दगी भर का प्रण है, जो मेरे लिए कल्याण रूप बने। इसमें धन का कोई व्यय नहीं है और तुम भी खुश हो जाओगी।" यह सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होते हुए धन्या ने कहा-"इस सम्यग् धर्म के कारण आपको तत्काल अद्भुत सम्पत्ति की प्राप्ति होगी।" इस प्रकार वचनों के द्वारा उत्साहित करने के कारण वह धनराज भी अपने नियम का दृढ़ता के साथ पालन करने लगा। जिसका कल्याण निकट भविष्य में हो, उसकी ही धर्म में दृढ़ मति उत्पन्न होती है। धन्या भी अपने पति की सहमति द्वारा धर्म-कर्म करने लगी। जो स्त्री पति के चित्त का अनुसरण करती है, वही पतिव्रता कहलाती है। इस प्रकार उन दोनों पति-पत्नी का कितना ही समय सुखपूर्वक व्यतीत हुआ, क्योंकि परस्पर चित्त का अनुसरण करनेवाले दम्पति ही सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकते हैं। एक बार मध्याह्न के समय मस्तक पर से भार उतारकर तुरन्त ही पानी के व्यय से भी भयभीत होता हुआ धनराज हाथ-पैर धोये बिना ही भोजन करने के लिए बैठ गया। भूख के कारण जिसका उदर अत्यन्त कृश प्रतीत होता था, उसे उसकी पत्नी धन्या ने कृपणता की मूरत के समान बनते हुए उसे तेल-सहित खिचड़ी परोसी। वह जब अपने हाथ से खिचड़ी को मिलाते हुए कौर लेने लगा, तभी उसे अपने नियम की याद आयी। अतः उसने अपनी प्रिया से कहा-"हे प्रिये! मैंने आज जिनेश्वर को नमन नहीं किया। अतः पहले मैं उन्हें नमन करने के लिए जाता हूं, क्योंकि यह तो मेरा नियम है। पर मेरे इस हाथ को तूं वस्त्र के द्वारा ढक दे, जिससे मुझे लज्जा न आये। अगर मैं हाथ को धोकर जाऊँगा, तो इसमें लगी हुई इतनी खिचड़ी बेकार हो जायगी।" यह सुनकर धन्या ने हर्षित होते हुए विचार किया-"अहो! मेरे पति को जिनेश्वर के प्रति कैसी निष्काम भक्ति है! जिससे कि क्षुधातुर होते हुए भी परोसी हुई थाली को छोड़कर भी जिनेश्वर को याद किया है। पर इसके साथ ही पूर्वकर्म से प्राप्त इनकी यह कृपणता भी
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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