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________________ 40/ श्री दान-प्रदीप श्रीगुरुदेव ने फरमाया-“हे कुमार! तुम्हारा कथन यथार्थ है। पर जिस प्रकार अशुभ कर्म भोगे बिना क्षीण नहीं होता, उसी प्रकार शुभ कर्म भी भोगे बिना क्षीण नहीं होता। अशुभ कर्म लोहे की बेड़ी के समान है और शुभ कर्म स्वर्ण की बेड़ी के समान है। अतः ये दोनों ही बेड़ियाँ किसे मोक्ष में जाने से नहीं रोकती? एक लाख वर्ष के बाद कर्मक्षय होने से तुझे चारित्र की प्राप्ति होगी और तुम इसी भव में मोक्ष प्राप्त करोगे। उतने समय तक तुम यथायोग्य विधि के अनुसार श्रावक धर्म का पालन करो। इससे तुम्हारे कितने ही कर्मों की निर्जरा होगी।" यह श्रवणकर हर्षित होते हुए कुमार ने अपनी पत्नियों के साथ बारह व्रत अंगीकार किये और विस्तारयुक्त श्राद्धधर्म ग्रहण किया। फिर चारित्र ग्रहण करने के लिए उत्सुक राजा नगर की तरफ चला। विशाल महोत्सवपूर्वक मेघनाद कुमार का नगर-प्रवेश करवाया। फिर शुभ बुद्धि से युक्त राजा ने कुमार को राज्यभार देकर स्वयं गुरुमुख से चारित्र ग्रहण किया और तपश्चर्या के द्वारा कर्मक्षय करते हुए अनुक्रम से सद्गति को प्राप्त हुए। उसके बाद जैसे इन्द्र स्वर्ग के राज्य को भोगता है, वैसे ही मेघनाद राजा पृथ्वी पर पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्राप्त साम्राज्य को भोगने लगा। चिन्तामणि रत्न की तरह वह रत्नकटौरा उसे हमेशा रत्न व सुवर्ण के बाजुबंध, कुंडलादि आभरण, उत्तम शय्या, आसन, रेशमी वस्त्रादि दिव्य पदार्थ इच्छानुसार देता था। वह राजा मेघनाद मदनमंजरी के साथ हमेशा उस कटौरे द्वारा प्रदत्त नये-नये दिव्य भोगों को शालिभद्र की तरह भोगने लगा। वह दातार सदा दीन-अनाथादि को दान देने में दस करोड़ स्वर्णमुद्रा का व्यय करता था। सत्पुरुषों की उदारता अद्भुत होती है। उस राजा ने पृथ्वी रूपी स्त्री के हार की तरह स्वर्ण, रजतादि के हजारों चैत्य बनवाये, क्योंकि इन्हीं कार्यों से लक्ष्मी सफल होती है। उन चैत्यों में उसने स्वर्णादि की करोड़ों जिनप्रतिमाएँ बनवाकर स्थापित करवायीं। जिनप्रतिमा करवाना सम्यक्त्व-प्राप्ति का मुख्य-बीज कारण है। फिर उन चैत्यों में वह विशाल महोत्सवपूर्वक स्नात्रादि पूजा करवाने लगा, क्योंकि शासन की प्रभावना सम्यक्त्व का महान भूषण-अलंकार है। वह राजा हर वर्ष तीर्थयात्रा और रथयात्रा आदि बड़े-बड़े अद्भुत उत्सव करता था। सत्पुरुषों को सत्कृत्यों में तृप्ति नहीं होती। इस राजा ने कर माफ कर दिया और इच्छित द्रव्य दान देने से कितने ही साधर्मिकों को लखपति व करोड़पति बना दिया। प्रतिमास वह राजा एक लाख साधर्मिकों को भोजन करवाता था और प्रतिवर्ष करोड़ों साधर्मिकों भोजन करवाता था। वास्तव में सत्पुरुषों को साधर्मिकों का पोषण करना चाहिए। उन सभी को भोजन करवाकर वह राजा हर्षित होकर सुन्दर वस्त्रादि भी उपहार में प्रदान करता था, क्योंकि साधर्मिकों का सत्कार करना परलोक का भाता है। वह हमेशा तीनों काल में अरिहंत
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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