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________________ 384/श्री दान-प्रदीप इस प्रकार दिवसों के समान उसने बारह वर्ष उस वेश्या के घर व्यतीत किये। स्त्री के संगम में आसक्त पुरुष का समय शीघ्र गति करनेवाला होता है। चिरकाल से इकट्ठी की हुई उसकी अखूट लक्ष्मी भी क्षय को प्राप्त हुई। उसके माता-पिता भी परलोक सिधार गये। फिर भी निर्दयी अक्का ने अधिक धन पाने की लालसा से मधुर वचन बोलनेवाली दासी को उसके घर धन लाने के लिए भेजा। वह दासी तत्काल कृतपुण्य के घर गयी। उस समय वह घर गिरने की तैयारी में था। उसकी भींते व देहरी गिर चुकी थी। अतः उसके वैभव की क्षीणता स्पष्ट रूप से दृष्टिगत हो रही थी। उस घर में उस दासी ने नवयौवन से युक्त उसकी पत्नी को देखा। उसने अपने स्वामी के मंगल का सूचक एक मोटा व कुसुमल वस्त्र पहन रखा था। इस प्रकार उस कृतपुण्य के घर की दुर्दशा और उसकी पत्नी की शांति देखकर दासी अत्यन्त विस्मित हुई। उसने उसकी पत्नी से कहा-“हे सखी! तेरे पति ने तेरी कुशलता जानने और धन लाने के लिए मुझे यहां भेजा है।" यह सुनकर चकोर पक्षी के समान नेत्रोंवाली उस स्त्री का मुखकमल विकस्वर हुआ। स्वामी का आदेश सुनकर वह हर्ष से रोमांचित हुई। फिर उसने कहा-“हे सखी! उन कान्त की आज्ञा मेरे मस्तक पर मुकुट के समान है। कर्म की विपरीतता से क्षेम- कुशल की बात तो मैं क्या कहूँ? मेरे वात्सल्य से युक्त श्वसुर और स्नेहमयी सास स्वर्ग सिधार चुके हैं। मेरे दैव की दुष्टता को धिक्कार है! उन दोनों ने मेरे पति को धन भेज-भेजकर सर्व लक्ष्मी का क्षय कर दिया है, क्योंकि प्रिय पुत्र से बढ़कर किसको धन पर मोह हो सकता है? मेरे पिता द्वारा मुझे कुछ आभूषण दिये गये थे। वे तुम ले जाओ, क्योंकि मेरे लिए तो शील ही भूषण है।" इस प्रकार कहकर उसने अपने शरीर पर से सारे अलंकार उतारकर दासी को दे दिये। कुलवन्त स्त्रियाँ पति पर अन्यथा भाव धारण नहीं करतीं। दासी उन अलंकारों को लेकर चली, पर उसका मन विस्मय से विकस्वर हो गया। उसके औचित्य का विचार करती हुई वह शीघ्र ही अक्का के पास पहुँची। अनंगसेना और कृतपुण्य की मौजुदगी में ही उसने वे सारे आभूषण अक्का को सौंपे और जो कुछ भी देखा-सुना, वह सभी अक्का को बताया। फिर कहा-"खाली किये हुए धन रूपी जल के कुएँ के तलिये की माटी के समान ये अलंकार उस कुलवती स्त्री ने भेजे हैं।" यह सुनकर "कुसुंबी रस की कूपी के समान इन अलंकारों से बस!'-इस प्रकार विचार करके तथा उसकी पत्नी के औचित्य को देखकर दयालू बनी अक्का ने अपनी तरफ से हजार स्वर्णमोहरें उन आभूषणों के साथ मिलाकर उन अलंकारों को तत्काल उसी दासी के साथ वापस भेज दिया। फिर अक्का ने अपनी पुत्री अनंगसेना को एकान्त में कहा-“हे पुत्री! वेश्याजनों को निर्धन मनुष्यों से क्या लाभ? अब कृतपुण्य को भी निर्धन-शिरोमणि मानो,
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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