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________________ 381/श्री दान-प्रदीप इच्छानुसार भोगें और सुखोपभोग करने के बाद वृद्धावस्था में चारित्र ग्रहण करें।" ___उसके इस प्रकार के वचनों को सुनकर भोगों से पराङ्मुख हुए मुनि ने उत्तम वचन कहे-"विषयों का परिणाम अत्यन्त दुःखदायी है। अतः विष के समान विषय अत्यन्त भयंकर है। जो दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य चारित्र का त्याग करके विषय सुख में मन को धारण करता है, वह अमृतरस का त्याग करके प्रारम्भ में सुखकारक ऐसे विष को पीने की इच्छा करता है। ___ हे मदन श्रेष्ठी! जो प्राप्त विषयों का त्याग करके चारित्र को अपनाता है, वही मनुष्य जगत में उत्तम है। जो अप्राप्त विषयों की इच्छा करता है, उन्हें तत्त्वज्ञानियों ने अधम कहा है। विषयों के स्वतः ही दूर हो जाने के बाद भी जो उन पर प्रीति को धारण करता है, वह अधमों में भी अधम है। अतः उन विषयों को अब मैं क्यों ग्रहण करूं? इन विषयों ने ही मेरा त्याग किया है, वह मेरे लिए महान लाभदायक हुआ है, क्योंकि उनके त्याग के कारण ही आज मैंने इस चिन्तामणि के समान दुर्लभ चारित्र को ग्रहण किया है।" इस प्रकार कहकर निःस्पृह मुनि अन्यत्र विहार कर गये। मदन अपने जामाता की ऐसी घटना को जानकर अत्यन्त विस्मय को प्राप्त हुआ। उसने मन में विचार किया-"किस कर्म के कारण लक्ष्मी ने उसका एकदम से त्याग किया और मुझे एकदम से अपना लिया? कोई उत्कृष्ट ज्ञानी मुनि पधारें, तो मैं इसका कारण पूछू और शल्य के समान अपने हृदय के संशय को दूर करूं।" इस प्रकार मदन विचार कर ही रहा था कि कुछ दिनों बाद कोई ज्ञानी मुनिराज वहां पधारे। यह सुनकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। पुण्यशाली का मनोरथ कभी भी निष्फल नहीं होता। नगरजनों के साथ उत्सुक मनवाला मदन भी मुनि को नमन करने के लिए गया। वहां विधिपूर्वक मुनि को वन्दन करके उनके पास बैठकर देशना का श्रवण किया। फिर मदन ने अपने हृदय में रहा हुआ संशय मुनि से पूछा। मुनि ने उसकी जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा-"इसी नगरी में पहले धनमित्र और सुमित्र नामक दो मित्र थे। धनमित्र के पास वैभव तो था, पर वह स्वभाव से कृपण था। सुमित्र के पास अल्प वैभव था, पर वह दान देने में उदार था। वास्तव में रत्न को दोषयुक्त करनेवाले विधाता ने दान और धन को अलग-अलग स्थान पर रखकर उन दोनों को ही विडम्बना प्राप्त करवायी है। स्वजनों तथा लोगों के कहने पर धनमित्र ने जिनपूजा, मुनिपूजा आदि अनेक प्रकार के पुण्यकार्यों में अत्यधिक लक्ष्मी का व्यय किया। __ फिर पूर्वकृत कुकर्मों के योग से वह कुबुद्धि से युक्त होकर स्वयं के द्वारा किये गये
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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