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________________ 372/श्री दान-प्रदीप समवशरण में सबसे पहले उसी का उपदेश देते हैं। सभी प्रकार के दानों में भी शास्त्र के ज्ञाता पण्डित पात्रदान को प्रधान मानते हैं, क्योंकि जैसे बरसात का जल सीप में पड़ने से उसका मोती बनता है और समुद्र में गिरने से खारा बन जाता है, वैसे ही पात्र और अपात्र में दान देने से उसके फल में महान अन्तर आ जाता है। वह पात्रदान भी दम्भरहित आदरपूर्वक करनेवाले को उत्तम फल की समृद्धि प्राप्त होती है-ऐसा पण्डित पुरुष कहते हैं, क्योंकि आदर का उत्कर्ष हो, तो शुभ फल प्राप्त होता है और आदर का अपकर्ष हो, तो अशुभ फल प्राप्त होता है। हे राजा! जो अनादरपूर्वक सुपात्र को दान देते हैं, वे दूसरे भव में धनी बनते हैं और जो आदरपूर्वक दान देते हैं, वे भोगयुक्त बनते हैं।" इस प्रकार सुनकर राजा के चित्त में संदेह उत्पन्न हुआ। अतः उसने मुनीश्वर से कहा"धनिक व भोगी में क्या अन्तर है? क्योंकि दोनों शब्दों का अर्थ तो समान ही होता है।" प्रश्न सुनकर गुरुदेव ने विचार किया-"प्रत्यक्ष उदाहरण के बिना मन्द बुद्धिवाले मनुष्य को सत्य की प्रतीति नहीं हो सकती।" अतः गुरुदेव ने फरमाया-“हे राजा! दोनों शब्दों के अर्थ में अत्यन्त अन्तर है। कान्यकुब्ज नामक पुर में रहनेवाले निधिदेव और भोगदेव नामक दो उत्तम श्रेष्ठी तुम्हारे इस संशय को दूर करेंगे, क्योंकि उसी से तुम्हें वास्तविक प्रतीति होगी।" यह सुनकर राजा ने "ठीक है" कहकर उस बात का निश्चय करने की इच्छा को मन में धारकर गुरुदेव को नमन किया और अपने स्थान पर लौट गया। वही पुरुष उत्तम बुद्धियुक्त कहलाता है, जो गुरुदेव की वाणी को उस प्रकार से अंगीकार करता है। फिर बुद्धिमान राजा ने सुमंत्र मंत्री को उस बात का निश्चय करने के लिए उस पुर में भेजा । आप्तपुरुष द्वारा कथित अपने कार्य की सिद्धि के लिए कौन बुद्धिमान प्रमाद करेगा? । ___उसके बाद सुमंत्र मंत्री शीघ्र ही कान्यकुब्ज पुरी में गया। वहां मनुष्यों को पूछते-पूछते वह बीस करोड़ स्वर्ण के स्वामी निधिदेव नामक अधम श्रेष्ठी के घर गया। उसका घर गरीब के घर के समान शोभा से रहित था। उसके द्वार में प्रवेश करते ही उसे मूर्तिमान दारिद्र्य के समान एक कद्रूप मनुष्य को देखा। उसके नेत्र बिलाड़े के समान पीले थे। उसकी नासिका धुवड़ के समान चपटी थी। उसके कान चूहे के समान अति लघु थे। उसके केश पिशाच के समान धूसर थे। उसके होंठ और कंठ ऊँट के समान लम्बे थे। उसके दाँत हाथी के सामन बाहर निकले हुए थे। उसका पेट इस तरह फूला हुआ था, मानो जलोदर की व्याधि व्याप्त हो गयी हो। उसने जीर्ण और मलिन दो वस्त्रों को धारण कर रखा था। उसका शरीर नखादि संस्कार से रहित और मुनीश्वरों की तरह स्नानादि से रहित था। उसके हाथ डोरी बनानेवाले
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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