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________________ 27/ श्री दान-प्रदीप से प्राप्त किया है। उसमें भी तुम योग और क्षेम की प्रार्थना के द्वारा विघ्न पैदा कर रही हो। पर तुम शील रूपी कवच से युक्त हो, अतः मैं तुम्हें हटाने में समर्थ नहीं हूं। सूर्य की किरणों से विकस्वर हुई कमलिनी को अन्धकार किस तरह उपद्रवित कर सकता है? मैं अधम जाति से युक्त हूं, फिर भी तेरी पतिभक्ति, शीलव्रत और सत्त्वादि गुणों से आश्चर्यचकित हूं। अतः तुझ पर दयाभाव उत्पन्न हुआ है। जैसे कोई दुर्मति पुरुष एक कौड़ी के निमित्त चिन्तामणि रत्न को हार देता है, वैसे ही मैं नरमांस के लोभ से यह दिव्य कटौरा तुम्हें दे रहा हूं| नागेन्द्र की कृपा से सर्व मनोवांछित देनेवाला यह दिव्य कटौरा तुझे जिन्दगी भर योग-क्षेम देनेवाला बनेगा। मैं भी तेरे पति का भक्षण करके तृप्त बनूंगा। अतः तूं यह कटौरा लेकर स्वस्थान लौट जा। तुम्हारा मार्ग कल्याणकारी बने।" यह सुनकर औत्पातिकी बुद्धि से युक्त वह वचस्विनी बोली-“हे मित्र राक्षेश्वर! तुमने मेरा बहुत बड़ा हित किया है। यह रत्नकटौरा मेरे सर्वार्थ की सिद्धि करेगा, क्योंकि देववाणी प्रमाण रूप होती है, उसमें कोई संशय नहीं होता। पर स्त्री-प्रकृति होने के कारण मैं मन में अत्यधिक अधीर हूं। अतः हे राक्षसेश्वर! आपके द्वारा दी गयी इस वस्तु की परीक्षा करके ही मैं इसे ग्रहण करूंगी, क्योंकि सुगन्धित वस्तु हो या महँगी वस्तु, उसकी परीक्षा करके ग्रहण करने पर लेनेवाला निन्दा का पात्र नहीं बनता। अगर आपकी मुझ पर कृपा हो, तो जब तक मैं इस वस्तु की परीक्षा न कर लूं, तब तक आप मेरे पति के प्राणों का हरण नहीं करेंगे।" राक्षस ने खुशी-खुशी आज्ञा देते हुए कहा-"शीघ्र परीक्षा करो। मेरे वचन अन्यथा नहीं है। मैं तब तक तेरे पति को नहीं मारूंगा, जब तक तुम इस कटौरे की परीक्षा नहीं कर लेती।" तब आनन्द से विकस्वर मुखवाली मदनमंजरी ने हाथ में वह रत्नजटित कटौरा लेकर भक्तिपूर्वक उसकी पूजा-अर्चना करके कहा-"भक्ति के वश हुए मनुष्यों के हित को करने में तत्पर हे नागेन्द्र! मुझ पर अपनी स्नेहभरी दृष्टि डालो। मुझे शीघ्र ही पति रूपी भिक्षा प्रदान करो।" इस प्रकार तो मैं इसके वचनों से ठगा गया हूं-ऐसा विचार करके क्रोधित होता हुआ राक्षस कुमार को कटार से मारने के लिए उद्यत हुआ। तभी उन दोनों के पुण्य से जागृत/आकर्षित हुए नागेन्द्र ने प्रकट होकर राक्षस का आक्षेप–सहित तिरस्कार किया-"हे मूर्ख! हे अधम राक्षस! चावलों के पानी द्वारा वृद्ध बिल्ली की तरह तूं इस विचक्षणा स्त्री के द्वारा वाणी के प्रपंच से ठगा गया है। अब तूं स्वकृत पापों का फल यहीं भोग।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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