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________________ 366/ श्री दान-प्रदीप जो पात्रदान के अनन्तर किया जाय । सचित्त के त्यागादि नियमों को वह अपने प्राणों की तरह पालता था, क्योंकि महापुरुष अपने व्रत का पालन करने में दृढ़ होते हैं। इस प्रकार धर्म की आराधना करने के बाद भी उसके पूर्वजन्म के अन्तराय कर्म का उदय आया, क्योंकि अपनी छाया के समान कोई भी पूर्वकर्म का उल्लंघन नहीं कर सकता। अतः थोड़े ही दिनों में चोर, अग्नि आदि के उपद्रव से उसका धन पाल टूटे हुए सरोवर की तरह क्षीण हो गया। इस भव में धर्म की आराधना की हो, तो ही परभव में सुख मिलता है और इस भव में जो भी सुख-दुःखादि मिलता है, वह उसका कारण पूर्व के कर्मों का उदय ही होता है। धन निर्धन हो जाने के बावजूद भी अपने धर्म पर पूर्णतया दृढ़ था। क्या भीषण गर्मी के बावजूद भी समुद्र विस्तार को प्राप्त नहीं होता? तुच्छ मनुष्यों के विविध प्रकार के वचनों के द्वारा भी उसका धर्म मलिन नहीं हुआ, क्योंकि पृथ्वी की धूल के द्वारा क्या जात्य रत्न का तेज कभी कम होता एक बार धन को उसकी भार्या धनश्री ने कहा-"हे स्वामी! आप मेरे पिता के घर पर जायं और वहां से धन लाकर कुछ व्यापार करें।" उसके इस प्रकार कहने के उपरान्त भी उसकी वहां जाने की इच्छा नहीं हुई, क्योंकि स्वाभिमानी पुरुष निर्धन होने के बाद सहायता की इच्छा से स्वजनों के पास भी जाने की इच्छा नहीं करते, तो ससुराल की तो बात ही क्या? पर जब उसकी भोली भार्या बार-बार उससे अपने पीहर जाने के लिए दबाव डालने लगी, तो फिर उसने जाने का विचार बनाया। फिर शुभ दिन देखकर उपवासवाले दिन उपवास करके अगले दिन का भाता साथ लेकर वह रवाना हुआ। अगले दिन पारणा होने के कारण वह किसी स्थान पर मार्ग में पारणे के लिए रुका। उस समय उसने विचार किया-"आज पात्रदान के बिना मैं कैसे भोजन करूं? क्या मेरा उग्र भाग्य आज भी जीवित है? कि इस अरण्य में भी कहीं से मुनीश्वर पधार जायंगे।" इस प्रकार विचार करते हुए वह दिशाओं की सन्मुख देखने लगा, क्योंकि साधुओं का योग मिले या न मिले, दिशाओं के सन्मुख देखना श्रावक के लिए उत्तम फलदायक है। तभी पन्द्रह उपवास का पारणा करने के लिए भिक्षा लाने जाते हुए मूर्तिमान धर्म के रूप में एक मुनिराज को उसने उस वन में देखा। उन्हें देखकर वह चित्त में अत्यन्त आनन्दित हुआ। तुरन्त उठकर उनके पास गया और साथ में लाया हुआ भाता उन्हें बहराया। फिर अपनी आत्मा को कृतार्थ मानते हुए बचे हुए भाते से स्वयं पारणा किया। फिर आगे बढ़ते हुए चौथे दिन अपनी ससुराल पहुँचा। वहां श्वसुरादि ने न तो उसका सत्कार किया, न ही थोड़ा भी धन दिया, क्योंकि गरीब व्यक्ति को स्वजन भी आदर नहीं देते। प्रायः करके वापस लेने के लिए ही लोग अन्यों को धन देते हैं। अगर ऐसा न हो, तो लोग क्यों दरिद्र का मुख भी नहीं देखना चाहते?
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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