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________________ 360/श्री दान-प्रदीप पर आपदाओं को प्राप्त करता है। जो मनुष्य दान धर्म नहीं करता, वह अधम होता है और जो दानधर्म करते हुए अन्य जनों को निषेध करता है, वह अधमों में भी अधम है। अतः हे बुद्धिमान भव्य जीवों! पात्रदानादि धर्म में यत्न करना चाहिए और अन्यों को भी उस धर्म में उत्साहित करने का प्रयास करना चाहिए।" इस प्रकार गुरु-वचनों को सुनकर राजादि सभी सभासद अत्यन्त प्रसन्न हुए और पात्रदानादि धर्म करने में आदरयुक्त बने। अपने पूर्वभव का श्रवण करके धनपति श्रेष्ठी मन में अत्यन्त हर्षित हुआ और 'सुपात्र को पात्र मात्र का दान करने पर मुझे कितना ज्यादा फल मिला?'-इस प्रकार शुभ ध्यान करने से तत्काल जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त किया। गुरु द्वारा कथित वृत्तान्त को उसने साक्षात् देखा। फिर उसने गुरुदेव से कहा-"हे भगवान! आपके वचन रूपी दीप के द्वारा अज्ञान रूपी अन्धकार के समूह के मध्य भी मैंने अपना पूर्वभव साक्षात् देखा है और जैन धर्म का श्रेष्ठ फल मिलता है-ऐसा मैंने जाना है, क्योंकि वह कल्पवृक्ष के समान तत्काल मनवांछित लक्ष्मी को प्रदान करता है। अतः संसार पर्यन्त मुझे भव-भव में यही धर्म शरण रूप बने। हे प्रभु! अभी भी मुझे यही धर्म कृपा करके प्रदान करें।" इस प्रकार विनति करके उसने गुरु के पास से हर्षपूर्वक मुक्ति रूपी स्त्री की दूती के समान देशविरति ग्रहण की। 'आज से मैं मुनियों को शुद्ध पात्र का दान निरन्तर करूंगा'-इस प्रकार शुद्ध भाव से जीवन-पर्यन्त के लिए अभिग्रह धारण किया। उस समय राजादि अन्य लोगों ने भी सम्यक्त्वादि ग्रहण किया। जिस धर्म का प्रत्यक्ष फल दिखायी दे रहा हो, वैसे श्रेयकारक धर्म को कौन अंगीकार नहीं करेगा? ___उसके बाद राजा, पुरजन और धनपति श्रेष्ठी आदि सभी केवली भगवान को नमस्कार करके अंतःकरण को धर्ममय बनाकर अपने-अपने घर चले गये। सदाचार पालने में आदरयुक्त वह सेठ विशाल राज्य के समान अरिहन्त धर्म को प्राप्त करके हर्षपूर्वक उसका पालन करने लगा। श्रेष्ठ भक्तिपूर्वक वह जिनेश्वरों की पूजा करता। उसने चित्त को प्रसन्न करनेवाले जिनचैत्य बनाये। वह शुद्ध अन्न-जल के द्वारा मुनियों को प्रतिलाभित करता। साधर्मिकों का भोजनादि के द्वारा अत्यन्त सम्मान करता। तीर्थयात्रादि के द्वारा प्राप्त हुई शासनोन्नति रूपी शाण पर निरन्तर समकित रूपी रत्न को अत्यन्त तेजस्वी बनाता था। हितकारक धर्मक्रिया में कुशल बुद्धिवाला वह पाप रूपी व्याधि का हनन करने के लिए औषधि की तरह दो बार आवश्यक क्रिया करता था। पाँच समिति पालने में प्रयत्नयुक्त और धैर्य की निधि के समान वह पर्वदिवस पर आभ्यन्तर शत्रुओं का हनन करने के लिए खड्ग के समान पौषधव्रत को ग्रहण करता था। उदार चित्तयुक्त वह निरन्तर मोक्ष रूपी लक्ष्मी को वश में करने के मंत्र के समान नमस्कार मंत्र का स्मरण करता था।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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