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________________ 347/श्री दान-प्रदीप हे पल्लीपति! तुमने हमारे उपदेश से इस शुद्ध धर्म को अंगीकार किया है। अतः हमें राज्यदान से भी ज्यादा देकर प्रसन्न किया है।" इस प्रकार गुरु का सन्तोष देखकर पल्लीपति विस्मित हुआ, क्योंकि दम्भरहित निर्लोभता किसके आश्चर्य का कारण नहीं बनती? उसके बाद अंतःकरण में हर्षित होते हुए उसने सत्पुरुष के मन के समान निर्मल और निर्दोष वस्त्र गुरु को बहराये। दान की वस्तु और दातार की शुद्धि देखकर गुरु ने उसके पुण्य से प्रेरित होकर उन वस्त्रों को ग्रहण किया। फिर पल्लीपति के द्वारा अंगीकृत धर्म का निर्वाह करने में उसका मन दृढ़ करने के लिए मुनि महाराज ने स्वयं निःसंग होने पर भी उसकी अत्यन्त श्लाघा की-"जन्म से ही कुमार्ग में तत्पर रहने के बावजूद भी तुम्हारा चित्त धर्मतत्त्व में लीन बना है। अतः तुम मुनियों के लिए भी मानने योग्य बन गये हो। कल्पवृक्ष के समान दुर्लभ धर्म को पाकर उसका पालन करने से तुम्हें मनुष्य व देवसमृद्धि सुलभ बनेगी। पर इस गृहीत धर्म को अपनी आत्मा के समान सम्यग् प्रकार से पालन करना, क्योंकि सत्पुरुष प्राणान्त आने पर भी अंगीकार किये हुए व्रत का त्याग नहीं करते।" इस प्रकार उसे अच्छी तरह उपदेश देकर गुरु महाराज ने अन्यत्र विहार किया, क्योंकि सूर्यकी तरह मुनियों का प्रकाश भी एक ही स्थान के लिए नहीं होता। उसके बाद वह पल्लीपति अपनी बुद्धि सद्धर्म रूपी बख्तर से युक्त होने से पूर्वोपार्जित पापकर्म का नाश करनेवाली भावना से भावित होने लगा-"मेरे अभी तक के जो दिन दुराचार के सेवन में गये, वे अब मुझे शत्रु की तरह पीड़ित बनाते हैं। मुझे इस भव में जो मनुष्यादि सामग्री मिली है, वह अब सफल हुई है, क्योंकि मुझ पापी को अब ही सद्धर्म प्राप्त हुआ है। अहो! इस सम्यग् धर्म में दया रूपी पुण्य कितना अधिक है? अहो! कितनी अधिक सत्यता है? अहो! चोरी के निषेध में कितनी अधिक प्रवृत्ति है? इस धर्म में क्या-क्या सुन्दर नहीं है? मेरी इस तुच्छ पल्ली में गुरु महाराज पधारे, तो मानो मरुस्थली में कल्पवृक्ष का अवतार हुआ ऐसा मैं मानता हूं। पापों ने मुझे नरक रूपी कसाईखाने के समीप पशु की तरह ले जाने का कार्य किया, तो भी दयालू गुरुदेव ने मेरा रक्षण किया। उन गुरु के अतुल तप की प्रभा किसके लिए आश्चर्यकारक नहीं होगी? क्योंकि उसी प्रभा रूपी चाबुक के द्वारा अच्छे अश्व की तरह देवता भी सन्मार्ग पर गति करते हैं। अहो! उनकी निःस्पृहता तीन भुवन में प्रशंसा करने योग्य है, क्योंकि उन मुनीश्वर को मैंने स्वर्ण दिया, तो भी उन्होंने ग्रहण नहीं किया। मेरे पापी होने के बावजूद भी मुझ पर गुरुदेव की कितनी महान कृपा है! कि जिन्होंने निःसंग होने पर भी मेरे आग्रह से वस्त्र ग्रहण किये। भव भव में मुझे ऐसे कल्याणकारी गुरु का समागम मिले और व्याधि से पीड़ित जीवों को जीवातु नामक औषधि के समान यह सम्यग् धर्म प्राप्त हो।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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