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________________ 345 / श्री दान- प्रदीप यह सुनकर गुरुदेव ने फरमाया- "मैंने इसका कुछ भी अपकार नहीं किया है, क्योंकि यति तो मित्र और शत्रु पर तुल्य दृष्टि से युक्त होते हैं। यह तो हमें मारने की इच्छा से एकदम तीव्र गति से दौड़ रहा था और अकस्मात् अपने आप ही स्तम्भ की तरह जड़ हो गया। हमने तो ऐसा ही देखा था। इसके सिवाय हमें तो और कुछ भी पता नहीं है । हमारे प्राणों का नाश होने पर भी हम चींटी जैसे क्षुद्र प्राणी पर भी द्रोह नहीं करते, तो फिर इतना अधिक दुःख हम कैसे दे सकते हैं? बल्कि हमारा मन तो इसके अकस्मात् संकट को देखकर अत्यन्त संतप्त हो रहा है ।" यह सुनकर वे सेवक और स्तम्भित शरीरवाला चण्डपाल विचार करने लगा - " अब क्या करें?" इस प्रकार विचारमूढ़ होकर सेवक अत्यन्त दुःखी होने लगे। तभी अपने तेज के द्वारा सूर्य का तिरस्कार करनेवाली तथा दैदीप्यमान आभूषणों से युक्त शासनदेवी प्रकट हुई और गुरु महाराज को नमस्कार करके कोपयुक्त वाणी में उन सेवकों से कहने लगी- "मैं जिनेश्वरों के चरण कमलों में भ्रमर के समान शासनदेवी हूं। तुम्हारा स्वामी इन मुनियों का हनन करने की इच्छा कर रहा था। उपयोग से यह सब जानकर मैं शीघ्र ही यहां आयी और मैंने ही इसे स्तम्भित किया है। दुराचारी इस पापी को मैं छोड़नेवाली नहीं हूं, क्योंकि समस्त विश्व के लिए बन्धु - स्वरूप साधुओं का अपकार करने की इच्छा करता है ।" यह सुनकर पल्लीपति के सेवक मुख में पाँचों अंगुलियाँ डालकर कातर स्वर में बोले -"हे देवी! वेदना के कारण इनके प्राण निकल जायंगे। आज से हम मुनिजनों का कभी भी अपमान नहीं करेंगे। आप हम पर प्रसन्न होकर हमारे राजा को छोड़ दो, क्योंकि सज्जनों का क्रोध चिरकाल तक नहीं रहता।" यह सुनकर देवी ने कहा - "अगर यह पल्लीपति इन उत्तम गुरु महाराज से क्षमायाचना करके जैनधर्म अंगीकार करे, तो गुरुदेव के चरण-कमलों की रज के स्पर्श से सूर्य के उदय से भ्रमर की तरह इसके कष्ट का नाश होगा। अगर यह ऐसा नहीं करेगा, तो इन्द्र भी इसे मुक्त करने में समर्थ नहीं है । " ऐसा कहकर देवी विद्युत् की तरह अदृश्य हो गयी। उस पल्लीपति के सेवकों ने तत्काल गुरुदेव के चरण कमलों की रज के द्वारा चन्दन की तरह पल्लीपति के कपाल पर तिलक किया। उसी समय पल्लीपति स्वस्थता को प्राप्त हुआ । हर्षित होते हुए विनयावनत होकर गुरु को प्रणाम करके क्षमायाचना करने लगा। उस समय गुरुदेव ने भी पाप के सन्ताप को दूर करने में निर्झर के समान अत्यन्त प्रीति को उत्पन्न करनेवाली वाणी के द्वारा कहा - "हे भद्र! मुझे कुछ भी कष्ट नहीं हुआ है । अतः क्षमायाचना की जरुरत नहीं है । निरोगी को औषधि की
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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