SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 339/श्री दान-प्रदीप कुमार शीघ्र ही वहां से चला। अनुक्रम से प्रयाण करके थोड़े ही दिनों में वह शालिग्राम की सीमा में आ पहुँचा। वहां वह एक वृक्ष की छाया में विश्राम लेने के लिए बैठा और विचार करने लगा-"मुझे घर से निकले अनेक दिन हो गये हैं। पर मैंने कहीं भी आश्चर्यकारी विशाल समृद्धि प्राप्त नहीं की, जिसे देखकर नवीन मेघों की घटा को देखकर ग्रीष्मऋतु की ताप को प्राप्त पृथ्वी की तरह चिरकाल से मेरे विरह के द्वारा पीड़ित मेरी माता प्रसन्न हो जाय । सर्वगुणसंपन्न जिस स्त्री को मैंने प्राप्त किया है, वह जाति से वेश्या होने के कारण मेरी हीलना का ही कारण बनेगी। समृद्धि से उत्पन्न होनेवाली उज्ज्वलता को नहीं प्राप्त हुआ मेरा मुख मैं अपनी दुःखी माता को किस प्रकार दिखाऊँ? मुझे जिन-जिन इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति हुई है, उससे लगता है कि मेरा नसीब अनुकूल है। नसीब अनुकूल होने पर ही मनुष्यों का उद्यम सफल होता है। पर अभी संपत्ति प्राप्त करने के लिए मैं तात्कालिक उपाय क्या करूं? हां! ठीक है। याद आया। उस वृक्ष के यक्ष के पास मेरा वरदान स्थापन के रूप में है। देववाणी पत्थर पर खींची गयी रेखा की तरह खोटी नहीं होती।" इस प्रकार विचार करके प्रशस्त मनयुक्त वह कुमार उस वृक्ष के समीप गया। उस वृक्ष की तीन बार प्रदक्षिणा करके पुष्पादि के द्वारा उसकी पूजा की और धूप के द्वारा वृक्ष को सुवासित किया। इस प्रकार सुख देने में निपुण उस यक्ष की पूजा करके जैसे धरोहर रखनेवाला अपनी धरोहर वापस मांगता है, वैसे ही उसने यक्ष से अपना वरदान मांगा। तब यक्ष ने प्रत्यक्ष होते हुए कहा-"तेरे वरदान के रूप में तुझे क्या दूं?" कुमार ने कहा-"मेरे लिए सर्व पदार्थों से युक्त एक विशाल नगर की रचना करके मुझे दो।" यह सुनकर देव ने तत्काल ही उस स्थान पर वन में दैवीय शक्ति से स्वर्ग जैसा मनोहर एक पुर बना दिया। उस पुर के मध्य में राजा के रहने लायक एक मणिमय महल था, जो ध्वजभुजंग के उज्ज्वल पुण्यसमूह के समान शोभित हो रहा था। कमल के चारों तरफ फिरते हुए राजहंसों की तरह उस महल के चारों ओर मंत्री, सेनापति, सामन्त, श्रेष्ठी आदि के महल थे। उन महलों के चारों ओर सामान्य मनुष्यों के रहने लायक हजारों घर मानो अभी-अभी पृथ्वी के भीतर से स्वयं उभरकर बाहर आये हों-ऐसा प्रतीत हो रहा था। उस नगर के बाहर चारों तरफ विशाल किला बना हुआ था, वह मानो पृथ्वी का भार उठाने से उद्विग्न होकर बाहर निकले हुए शेषनाग की तरह शोभित हो रहा था। उस किले के चारों तरफ जल से भरी हुई खाई थी। वह स्नेह के द्वारा लक्ष्मी (पुत्री) से मिलने आये हुए समुद्र की तरह शोभित हो रही
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy