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________________ 337 / श्री दान- प्रदीप दिलवाया । 1 इस प्रकार राजा के द्वारा अपार सन्मान को प्राप्त कुमार को वह पतिव्रता महोत्सवपूर्वक अपने घर पर लायी । फिर उस कुमार के तेज से मानो पराभव को प्राप्त सूर्य लज्जित होकर दृष्टिपथ से दूर हो गया अर्थात् अस्त हो गया। प्रिय के दर्शन से हुए हर्ष के द्वारा विकस्वर हुए उसके नेत्र मानो स्वयं का ही पराभव करनेवाले हों - इस प्रकार विचार करके भयभीत होकर कमलों की श्रेणियाँ मुरझा गयीं। अपने तेज का हरण करनेवाले सूर्य की किरणें हों - इस प्रकार से उसके घर में रहे हुए दीप दैदीप्यमान दिखायी दे रहे थे। उसके घर और आकाश में कलाओं का स्थान, सौम्य, मनोहर, सुवृत्त (कुमार के अर्थ में सदाचरणयुक्त और चन्द्र के अर्थ में गोल) और सुमनःप्रिय (कुमार के अर्थ में सज्जनों को प्रिय और चन्द्र के अर्थ में रात्रिविकासी पुष्पों को प्रिय) कुमार तथा चन्द्र एक साथ उदय को प्राप्त हुए । समग्र लक्ष्मी कमल का त्याग करके हर्ष से विकस्वर होकर मानो गणिका के मुखकमल पर विराजी हो - इस प्रकार उसका मुख शोभित होने लगा। उस समय केवल कुमुदिनियाँ ही विकसित नहीं हुईं, बल्कि उसकी सखियों का मुख भी विकस्वर हो गया। ऐसा लगता था कि जब रात्रि ने तरुणावस्था को पाया, तब आकाश में रहा हुआ राग ( रक्तिमा) मानो उसके हृदय में समा गया था अन्यथा वह राग कहां गायब हुआ ? वह आकाश में क्यों नहीं दिखायी दिया? ऐसी रात्रि के समय अगरु के धूप सुवासित मोतियों के झुमके जिसमें लटकाये हुए थे, ऐसे विस्तार को प्राप्त उल्लोल के द्वारा शोभित शयनगृह में उद्धत कामदेव रूपी अश्व को खेलाने की अभ्यास - शाला हो - ऐसी मनोहर चादर से युक्त विशाल शय्या सजाकर उस गणिका ने विविध प्रकार के स्थानों का आश्रय करनेवाली, मनोहर व्यंजनवाली और सुन्दर स्वर से युक्त समग्र भोग रूपी मातृका उस कुमार को सिखायी। उसने दिव्य अंगराग, श्रृंगार और ताम्बूलादि के द्वारा उसका उपचार करके उस रात्रि को सार्थक माना । वह देवदत्ता उसे मनवांछित भोजन, वस्त्रादि देकर अत्यन्त प्रेमपूर्वक चिन्तामणि की तरह उसकी आराधना / सेवा करने लगी। अहो! चर्मचक्षु से युक्त जन धर्म के महत्त्व को जान ही नहीं सकते, क्योंकि इस कुमार को वह वेश्या इच्छित धन प्रदान कर रही थी। तृप्ति को प्रदान करनेवाली प्रीति रूपी अमृत-बावड़ी में इस प्रकार क्रीड़ा करते हुए उन दोनों के अनेक दिवस मुहूर्त की तरह व्यतीत हो गये । एक बार वह कुमार अत्यन्त सुख में लीन था, तभी उसे अपनी माता का स्मरण हो आया। अतः मन में पीड़ित होते हुए वह अपने कुलाचार के अनुरूप उचित विचार करने लगा - " अधम पुरुषों में शिरोमणि मुझको धिक्कार है! कि मैंने तीर्थ की तरह आराधना करने लायक मेरी निराधार माता का त्याग करके स्वच्छन्दता का आश्रय लिया। जो हर्ष के साथ
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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