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________________ 335/ श्री दान- प्रदीप करती हुई देवदत्ता को देखकर जिन्होंने सर्वस्व की प्रतिज्ञा की थी, वे अग्नि के बिना भी चारों तरफ से जलने लगे । इस प्रकार के कौतुक को देखकर अत्यन्त विस्मित हुए नगरजन इकट्ठे होकर परस्पर बातें करने लगे-"जो देवदत्ता राजा के भवन में भी बिना वाहन नहीं जाती, वह पैरों से चलकर इसके पास आयी है। अहो ! कैसा आश्चर्य है ! राजा आदि प्रमुख पुरुष धन देकर प्रार्थना करते हैं, पर फिर भी यह अपना मुख टेढ़ा कर लेती है। वही देवदत्ता आज कुमार की दासी के समान सेवा कर रही है । अहो ! इस कुमार की अद्भुत शक्ति का परिमाण कौन जान सकता है? कि जिसने धन, संपत्ति आदि किसी भी उपाधि से रहित होते हुए भी खरीदी हुई दासी की तरह इस गणिका को वश में कर लिया है। क्या इस कुमार के रूप में कृत्रिम वेश को धारण करके कोई देव आया है? या विद्या के बल से रूप परिवर्तित करके कोई विद्याधर आया है?" इस प्रकार स्थान-स्थान पर समूह रूप में इकट्ठे हुए लोग अनेक कल्पनाओं से रंगी हुई अपनी जिहवाओं को नचाने लगे । उधर गणिका ने ग्राम में जाकर राजा की आज्ञा लेकर ग्राम में तोरणों की श्रेणियाँ बंधाकर उसे ध्वजाओं के समूह से शोभित करवायी । फिर शमियाना, घोड़ों आदि अद्भुत सामग्री तैयार करवाकर नगर के लोगों के साथ ध्वजभुजंग के सामने गयी। उसके पास जाकर उस गणिका ने विज्ञप्ति की - " हे स्वामी! राजा को नमस्कार करके मेरे घर को पवित्र करो । आत्मा रहित शरीर की तरह आपके बिना मेरा घर सूना है ।" इस प्रकार राजा के द्वारा भेजे गये हाथी पर चढ़ने के लिए कहा । एरावत पर इन्द्र की तरह वह कुमार उस हाथी पर आरूढ़ हुआ । उसके परोपकार के पुण्य के समान उज्ज्वल छत्र गणिका ने मस्तक पर धारण करवाया । प्राप्त हुए नवीन यश के समान उज्ज्वल चामर उसके दोनों ओर वींजे जाने लगे। उसके पीछे देवदत्ता सुखासन पर बैठकर हर्षपूर्वक चली जा रही थी । प्रसन्नतापूर्वक अन्य वेश्याजन मंगल गीत गाने लगीं। 'यह कुमार परोपकार से उपार्जित पुण्य के द्वारा इतनी अधिक समृद्धि को प्राप्त हुआ है - इस प्रकार स्तुति करते हुए बन्दीजनों को वह प्रीतिदान देता हुआ संतुष्ट कर रहा था । सर्वांग में धारण किये हुए अलंकारों से उत्पन्न हुई कान्ति के समूह के बहाने से मानो अपने पूर्व के पुण्य को मनुष्यों को दिखा रहा हो-इस प्रकार शोभित हो रहा था । बजते हुए विशाल वाद्यन्त्रों के शब्द सुनकर पुर की स्त्रियाँ अपने रोते हुए बालकों तथा रसोई को बीच में ही छोड़कर शीघ्रता के साथ अपने - अपने भवनों के द्वार पर आकर विकस्वर नेत्र रूपी अंजलियों के द्वारा उस कुमार के लावण्य रस के पूर का पान कर रही थीं। जिनकी सैकड़ों प्रार्थनाएँ उस गणिका ने व्यर्थ की थीं, वे कामुकजन उस
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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