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________________ 331/श्री दान-प्रदीप ऐसा कहकर भामह ने उसे लेख दिया। कुमार भी हर्षपूर्वक उसे पढ़ने लगा__ "स्वस्ति! श्री स्वामी के चरण-कमलों के द्वारा शोभित उज्जयिनी पुरी के मध्य पूज्य ध्वजभुजंग नामक भर्तार के दुर्लभ चरण-कमलों की सेवा में। श्रीकन्यकुब्ज पुर से आपकी दासी देवदत्ता मस्तक पर दोनों हाथ जोड़कर स्नेहपूर्वक विनति करती है कि यहां आप पूज्यपाद के प्रसाद से कुशलता है। आपका कुशल ज्ञात करवायें। अब यह कार्य-निवेदन है कि हे नाथ! आपने इस प्रकार का उपकार करके मुझे इतना बड़ा देनदार बना दिया है कि मैं अपना सर्वस्व भी दे दूं तो भी आपके उपकार से उऋण नहीं हो सकती। अतः हे स्वामी! मैं आपके उपकारों द्वारा खरीदी गयी दासी बन गयी हूं, क्योंकि जब अत्यधिक कर्ज चुकाना हो, तो दासपने के सिवाय अन्य कोई उपाय शेष नहीं रहता। जैसे रात्रि चकवी चकवे को देखने के लिए उत्सुक बनी रहती है, वैसे ही मैं आपके दर्शनों के लिए उत्सुक हूं। हे देव! जब मेरा जीवन और यौवन आपके संगम के महा आनन्द के द्वारा सौभाग्ययुक्त बनेगा, तभी वह सफल होगा। आपके बिना मेरा उद्यान सूना है, मेरा घर सूना है, सर्वदिशाएँ सूनी हैं और मेरा मन भी सूना है। मेरी दृष्टि में तो सारा जगत ही सूना है। हे सुभग! तुम्हारे वियोग में मुझे विलेपन, भोजन, स्नान, हास्य, नृत्य व उत्सवादि सभी विष के समान लगते हैं। आपके वियोग का दुःख आपके दर्शन से ही नाश को प्राप्त होगा, क्योंकि ग्रीष्मऋतु से उत्पन्न हुआ पृथ्वी का ताप मेघ के द्वारा ही शान्त होता है। अतः हे देव! आपकी इस दासी का जीवन अब आपके ही हाथ में है। प्रसन्न होकर शीघ्र ही मुझे मिलने या बुलाने के लिए जल्दी ही यहां पधारें। मेर नेत्र आपके लावण्य रूपी अमृत रस के लिए तरस गये हैं। अतः अमुतरस का पान करके वे तृप्त बनें ऐसा कोई उपाय तृप्ति पाने के लिए करें। इति शम्।" इस प्रकार का लेख पढ़कर कुमार हर्ष से रोमांचित हो गया। वाचालयुक्त होकर वह आश्चर्य से बोला-"अहो! उसकी सज्जनता! अहो! उसके प्रेम की प्रधानता! अहो! उसके विनय की निपुणता! अहो! उसकी वचन-रचना! ये सभी अद्भुत है।" यह सुनकर सार्थवाह ने कहा-"इस लेख में जो लिखा हुआ है, उसका प्रत्येक अक्षर सत्यरूप ही है, उसकी यह सम्पूर्ण दशा मैंने अपनी आँखों से देखी है। अतः हे मित्र! जिसने अन्य पुरुषों की आसक्ति का त्याग किया है और जो तेरे वियोग से पीड़ित है, उस पतिव्रता से अब शीघ्र ही मिलना तेरे लिए योग्य है। हे मित्र! अब मैं जाना चाहता हूं। कार्य होने पर तुम मुझे जरूर याद करना।" ऐसा कहकर सार्थवाह वहां से रवाना होकर अपने स्थान पर लौट गया। उसके बाद बुद्धिमान ध्वजभुजंग ने विचार किया-"कृतज्ञजनों में शिरोमणि वह गणिका
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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