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________________ 320/ श्री दान-प्रदीप जाती है, उसी प्रकार राजपाल को भी मित्रों के साथ जुए की आदत लग गयी। जैसे चन्द्र में कलंक, धनवान में कृपणता, दातार में वाणी की कठोरता, समुद्र में खारापन, विशाल राज्य में अनीति और गुलाब में कांटे दोष को उत्पन्न करते हैं, वैसे ही कुमार में द्यूत का दोष उत्पन्न हो गया। अहो! नीच की संगति सर्व दोषों को जीवन प्रदान करनेवाली औषधि है, क्योंकि नीच के संग ने इस गुणवान कुमार को भी जुआरी बना दिया था। नीच की संगति से बड़े-बड़े पुरुषों का माहात्म्य भी घट जाता है। क्या मदिरापात्र में रहा हुआ जल अपेय नहीं होता? छल-कपट से खेलनेवाले जुआरियों के साथ जुआ खेलते हुए वह तुच्छबुद्धि से युक्त कुमार बार-बार विशाल धनराशि हार जाता था। पुत्र की उपेक्षा करनेवाले पिता पुत्र के पाप से लिप्त बनता है। ऐसा विचार करके बुद्धिशाली पिता ने एक दिन उसे शिक्षा दी–"हे स्वच्छ बुद्धियुक्त वत्स! धूलयुक्त पृथ्वी पर हाथी के आलोटने की तरह सर्व गुणयुक्त तुम्हारे द्वारा जुआ खेलना योग्य नहीं है। हे पुत्र! जुआ समग्र आपत्तियों का संकेत स्थान है। यह समस्त दोषों की अक्षय खान के रूप में प्रसिद्ध है। अत्यन्त प्रचण्ड भुजबलवाले पाण्डव भी द्यूत के व्यसन पर प्रीति के कारण किस-किस पराभव को प्राप्त नहीं हुए? विशाल साम्राज्य को भोगनेवाले धैर्यवान और मनोहर राजा नल भी द्यूत के द्वारा श्रवण न करने योग्य दुष्ट दशा को प्राप्त हुए थे-ऐसा सुना जाता है। अतः हे वत्स! सर्व पाप के स्थान रूपी द्यूत का तूं त्याग कर, कि जिससे दिन-दिन तेरा बड़प्पन बढ़ता जाय।" इस प्रकार पिता के उपदेश से राजपाल कितने ही समय तक पाल से बांधे हुए नदी के प्रवाह के समान मर्यादा में रहा। पर फिर पूर्व के अभ्यास के कारण पुनः द्यूत में प्रवर्तित हो गया। ऊपर की ओर ले जाया जाता हुआ पानी अधिक देर तक स्थिर नहीं रह सकता। हितैषी पिता ने दो-तीन बार पूर्व की तरह उसे जुआ खेलने से रोकने का प्रयास किया, पर उसने उस व्यसन का त्याग नहीं किया, क्योंकि जिसको जो व्यसन लग जाता है, उसके लिए उसे छोड़ना मुश्किल होता है। विवेकवान पिता ने विचार किया-"पूर्वजन्म के कर्मों के उदय को कोई भी अन्यथा नहीं कर सकता।" ऐसा सोचकर उन्होंने उदसीनता धारण कर ली। ऐसे पुत्र का दुर्व्यसन देखने में मानो असमर्थ हो-इस प्रकार कुछ समय बाद ही पिता सिंहपाल का परलोकगमन हो गया। पिता का मरण कार्य करके राजपाल पुनः द्यूत में प्रवर्तित हो गया, क्योंकि जिसका मन जिस कार्य में आसक्त हो, उसका मन उसी कार्य में आनंद पाता है। उसका व्यसन इतना अधिक बढ़ गया था कि भोजन करते ही उसके हाथ तत्काल जुआ खेलने में व्यग्र हो जाते थे। द्यूत के कारण चारों ओर उसकी महिमा का विनाश हुआ। क्या काजल के संबंध से उज्ज्वलता की हानि नहीं होती? उसी व्यसन से अनुक्रम से उसका समग्र धन पाल से रहित सरोवर के जल की तरह
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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