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________________ 309/श्री दान-प्रदीप विलाप करने लगीं-"हा! हा! हमारे मन रूपी कमल में क्रीड़ा करनेवाले हंस! हा! कलावंत पुरुषों में शिरोमणि! न देखने योग्य यह दुष्ट दशा कैसे हो गयी? रात्रि में वियोग को प्राप्त चकवे के साथ चकवी का संयोग करानेवाले सूर्य की तरह तुम्हारे बिना हमारे वल्लभ के साथ हमारा संयोग कराने में कौन समर्थ है? हे बुद्धिमान! पृथ्वी के ताप को जैसे मेघ के बिना अन्य कोई शान्त नहीं कर सकता, वैसे ही प्रिय के वियोग रूपी दावानल से उत्पन्न हुए हमारे ताप को तुम बिन अन्य कौन उपशान्त कर सकता है? हे दुष्ट आचरण करनेवाले दैव! हमने तुम्हारा क्या अपराध किया? कि जिससे हमारे इष्ट की ऐसी दुर्दशा की? अरे पापी सर्प! हमारे दृष्टिमार्ग से दूर हो जा। ऐसी दुष्ट चेष्टा करनेवाले तुझ जैसों का दो जिह्वापना स्पष्ट ही है। हे राजा! हमारे पति के बारे में निवेदन करनेवाला इसके सिवाय अन्य कोई नहीं है। अतः हमारा जीवन और मरण इसके साथ ही रहा हुआ है।" । इस प्रकार अत्यन्त छाती को कूटती हुई, मस्तक पछाड़ती हुई और विलाप करती हुई उन स्त्रियों को देखकर ऐसा कौनसा मनुष्य होगा, जो उनके दुःख में दुःखी होकर रोने न लगे? उसके बाद दिव्य शक्ति के कारण राजा की कन्या को वह कुमार दिव्य रूप से युक्त दिखने लगा। अतः उसे कुमार पर प्रीति उत्पन्न हो गयी। वह विचार करने लगी-"अहो! इनके सर्वांग का सौभाग्य दृष्टि को बांधनेवाला है। लोग इन्हें कुब्ज कहते हैं, यह उनकी मूर्खता ही है। पुण्यरहित मुझ पर ही विधाता की ऐसी प्रतिकूलता क्यों हुई? कि जिससे मेरे विवाह के समय ही इनकी यह दुर्दशा हुई। ऐसा पति तो पूर्व के अगणित पुण्यों के कारण ही प्राप्त होता है। तो मेरा ऐसा पुण्य कहां से हो जिससे कि मैं ऐसे पति को प्राप्त कर पाऊँ? अगर इनके साथ पाणिग्रहण संभव नहीं हुआ, तो मैं अन्य किसी के साथ विवाह करनेवाली नहीं हूं। क्या भ्रमरी मालती के पुष्प को छोड़कर अन्य स्थान पर प्रीति प्राप्त करती है? अतः अपना दाहिना हाथ देनेवाले इस पुरुष के साथ ही मेरा जीना और मरना तय है।" इस प्रकार सत्यबुद्धि से युक्त उस कन्या ने विचार किया और उन तीनों स्त्रियों के साथ ही स्वयं भी विलाप करने लगी। यह देखकर पुत्री के भावी वैधव्य से दुःखित राजा वैद्यों आदि के पास उस कुब्ज के विष का प्रतिकार रूपी उपचार करवाने लगा। पर उन उपायों के द्वारा कुब्ज पर कुछ भी असर नहीं हुआ, क्योंकि निदान जाने बिना किया गया प्रतिकार निष्फल होता है। ऐसा लगता था, मानो वह मर चुका है। उस समय समग्र सभा शोकातुर हो गयी। एकमात्र मंत्री ही मन में खुश हुआ। जिनकी आत्मा मलिन होती है, वे ही अन्यों की आपत्ति देखकर मन में प्रसन्न होते हैं। उसके बाद सतियों के मध्य अग्रसर उन चार पतिव्रताओं का चित्त पति-प्राप्ति की निराशा के कारण अत्यन्त दुःखित हुआ। अतः उन्होंने छुरी के द्वारा अपने
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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