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________________ 293 / श्री दान- प्रदीप इस प्रकार अत्यन्त आग्रह करके राजा ने अतुल महोत्सव के द्वारा पवित्र लावण्ययुक्त उस कन्या को उसके साथ परणाया । हस्तमिलाप के समय प्रसन्नचित्त राजा ने अनेक हाथी, घोड़े, स्वर्णादि प्रदान किये। फिर राजा ने चूने उज्ज्वल महलादि बनवाकर उसमें प्रीतिपूर्वक अपनी पुत्री व जामाता का उतारा करवाया। इस तरह राजा ने अनेक प्रकार से उस कुमार का सम्मान किया। रत्नवती भी भक्तिपूर्वक उसकी सेवा करने लगी। पर फिर भी धनवती के बिना कुमार को किसी भी स्थान पर प्रीति नहीं हुई। ऐसा होने पर भी उसकी आन्तरिक पीड़ा को कोई पण्डित नहीं जान पाया, क्योंकि सत्पुरुषों का हृदय समुद्र की तरह अथाह होता है । धनवती के वियोग के कारण वह धरती पर शय्या करके सोता था। मुनि की तरह निर्मल शील का पालन करता था । रत्नवती को किसी प्रकार का उद्वेग न हो - इसलिए वह निरन्तर प्रीति रूपी अमृतमय रसिक बातों से उस प्रिया को भी खुश रखता था । एक बार परस्पर अमृतधारा के समान प्रेमगोष्ठी हो रही थी । उस समय रत्नवती ने प्रीतिपूर्वक अपने पति से कहा - "हे देव! सुवर्णमय अनेक पल्यंकों के होते हुए भी मुनि के समान आप पृथ्वी पर शयन क्यों करते हैं?" यह सुनकर कुमार ने विचार किया कि निश्चय ही इस प्रिया को सौत का नाम सुनते ईर्ष्या होगी, क्योंकि स्त्रियों को सपत्नी का नाम विष से भी अधिक कड़वा प्रतीत होता है । अतः अपनी लघुता और अन्यों को अप्रीति हो - ऐसे वचन बोलना उचित नहीं है। ऐसा विचार करके उसने उस समय उचित वचन बोलते हुए कहा - "हे देवी! मैं देशान्तर देखने के लिए घर से निकला हूं। उस समय माता-पिता से जल्दी मिलने की इच्छा से मैंने, दो अभिग्रह धारे थे। जब तक मैं माता-पिता से पुनः नहीं मिलूंगा, तब तक भूमि पर शयन) करूंगा और शीलव्रत का पालन करूंगा ।" यह सुनकर रत्नवती विस्मय को प्राप्त हुई। बोलने में चतुर उसने कहा - "आपकी माता-पिता के प्रति ऐसी भक्ति किसके द्वारा प्रशंसनीय न होगी ? किसी-किसी महापुरुष के मानस में माता-पिता के प्रति राजहंसिनी के समान निर्मल - उज्ज्वल भक्ति विलास करनेवाली होती है। जो माता-पिता की सेवा के द्वारा पवित्र न हो, उसे कुपुत्र मानना चाहिए। जो सास - श्वसुर की सेवा न कर पाये, उसे कुबहू मानना चाहिए । अतः मेरा मन भी आपके माता-पिता की सेवा करने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित होता है । अतः हे स्वामी! अपने नगर की तरफ चलने के लिए शीघ्र ही तैयारी कीजिए, जिससे आपका अभिग्रह शीघ्र ही सफल हो ।" उसके वचन सुनकर कुमार विस्मय को प्राप्त हुआ। उसने कहा- " - "हाँ! अब हम जल्दी ही प्रयाण करेंगे।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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