SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 279 / श्री दान- प्रदीप प्रदान करूंगी। यह सुनकर द्रव्य के लोभ से अनेक लोग उस विषय में प्रयत्न करने लगे, पर कोई भी उस विवाद को निपटाने में समर्थ न हो सका । अन्त में धनदत्त की बुद्धि उस विवाद को निपटाने में अस्खलित प्रवर्त्तित हुई। उसने एक हाथ में बारह करोड़ स्वर्ण की कीमतवाले बारह रत्न रखे और दूसरे हाथ में दर्पण रखा। उस दर्पण में रत्नों का प्रतिबिम्ब दिखाते हुए उसने धूर्त से कहा - "हे भद्र! इस दर्पण में दिखनेवाले रत्नों को तुम ग्रहण करो ।" यह सुनकर धूर्त क्रोधित होते हुए बोला - "इन प्रतिबिम्बित रत्नों से क्या प्रयोजन ? इन्हें कैसे ग्रहण किया जा सकता है?" तब धनदत्त ने कहा- "हे भद्र! क्या तुमने लोकोक्ति नहीं सुनी कि पुरुष की जैसी भावना होती है, तदनुरूप ही सिद्धि होती है। जैसा प्रासाद होता है, उसमें वैसी ही प्रतिमा स्थापित की जाती है। जैसे देव होते हैं, वैसे ही पुजारी भी होते हैं । अतः जिस प्रकार इसने स्वप्न में धन लिया था, उसी प्रकार यह प्रतिबिम्ब के रूप में वापस भी लौटा रही है, क्योंकि स्वप्न और प्रतिबिम्ब में कोई फर्क नहीं है । " यह सुनकर धूर्त निराश होकर अपने स्थान पर लौट गया। गणिका ने भी प्रसन्न होते हुए धनदत्त को कोटि स्वर्ण प्रदान किया। इस प्रकार विवेक रूपी कल्पवृक्ष के द्वारा धनदत्त का धन अनुक्रम से वृद्धि को प्राप्त हुआ, जिससे वह पचपन करोड़ स्वर्ण का स्वामी बन गया । एक बार राजा की आज्ञा से नगर में आरक्षकों ने एक चोर को कारागृह में डाला । पापियों पर राजा ही शासन कर सकता है। वह चोर क्षुधा - तृषा आदि को सहन करता हुआ मरण को प्राप्त हुआ। अकाम निर्जरा के कारण वह राक्षस योनि का देव बना । तुरन्त उसने अवधिज्ञान का उपयोग लगाया। उसने जाना कि राजा के द्वारा दिये गये कष्टों के कारण उसे मरण प्राप्त हुआ है। उसका क्रोध जागृत हुआ । जैसे सिंह हाथी को पकड़ता है, वैसे ही उसने भी हनन करने के लिए राजा को पकड़ा। जैसे कसाई बकरे को अन्त्य दशा प्राप्त करवाता है, वैसे ही उसने भी राजा को अन्त्य दशा प्राप्त करवायी । तब नगरजन उसे प्रसन्न करने के लिए इकट्ठे होकर कहने लगे- "हे देव ! आप दया करें। न्यायमार्ग पर चलनेवाले हमारे स्वामी को छोड़ दें।" तब राक्षस ने कहा-'अगर कोई वीर पुरुष अपने शरीर का बलिदान मुझे दे, तो मैं राजा को छोड़ दूंगा।” यह सुनकर सभी कायर बन गये और दान देने में कृपण बने पुरुष की तरह सभी मुख नीचा करके खड़े हो गये। तब परोपकार में रसिक धनदत्त ने कहा- "हे देव! मैं मेरा शरीर
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy