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________________ 272/श्री दान-प्रदीप कोई नवीन पर्वत बनाया गया हो। उन रत्नों के द्वारा वाहन भरकर वह कुशलतापूर्वक अपने नगर में आया। वहां अविवेकपने से उसने राजा को अल्प भेंट दी। अतः रत्नवीर राजा रत्नों को पाने के लोभ से कोपायमान हुआ। सैनिकों को आज्ञा देकर उसके वाहन रोक लिये। अपने अविवेक के कारण सिद्धदत्त ने पहले भी महाजनों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं रखा था। अतः महाजनों ने राजा से कुछ भी विज्ञप्ति नहीं की। "अब मैं क्या करूं? कहां जाऊँ? क्या उपाय करूं?"इत्यादि चिन्ता से आकुल-व्याकुल होकर महाकष्ट में बारह दिन व्यतीत किये। तेरहवें दिन राजा को स्वयं ही सबुद्धि उत्पन्न हुई कि-"ये पराये रत्न लोभ में आकर मेरे द्वारा ग्रहण करना उचित नहीं है।" ऐसा विचार करके सिद्धदत्त के वाहनों पर से अपनी आज्ञा वापस ले ली। उसके वाहन मुक्त कर दिये। क्या स्वयं के अतिरिक्त अत्यन्त भरती में आये हुए समुद्र को अन्य कोई निवार सकता है भला? फिर हर्षित होते हुए सिद्धदत्त ने वाहन में से मणिरत्नों के समूह को निकालकर धान्य के समान उन्हें घर के कोठारों में भर दिया। फिर उन्हें बेचकर उसने 66 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ कमायीं। पर वह सारा धन भूतों से अधिष्ठित की तरह दान और भोग से रहित ही रहा। जैसे चन्द्र को उसका कलंक दूषित करता है, समुद्र को उसका खारापन दूषित करता है, धर्म को मिथ्यात्व दूषित करता है, रूप को कुशील दूषित करता है, अनीति राज्य को दूषित करती है, कांजी दूध को दूषित करता है, उसी प्रकार उसकी कृपणता ने उसकी लक्ष्मी को दूषित कर दिया। मानो किसी कलंक के द्वारा उसे जाति से बाहर कर दिया गया हो-इस प्रकार वह खर्च के भय से कभी भी महाजनों के समूह के मध्य नहीं जाता था। जैसे ब्राह्मणों की पुरी के पास भी चाण्डाल नहीं जा सकता, वैसे ही वह दुष्ट बुद्धिवाला धर्मशाला के नजदीक होकर भी नहीं गुजरता था। लक्ष्मी रूपी मदिरा से मत्त होकर वह महाजनों को तृण के समान भी नहीं मानता था। अतः वह निरन्तर उन महाजनों की आँखों में खटकता था। वह कभी भी देवपूजा नहीं करता था। सद्गुरु की सेवा भी नहीं करता था। सत्पुरुषों का सत्कार नहीं करता था। दुःखीजनों पर उपकार भी नहीं करता था। लोभ की व्याकुलता से केवल धनोपार्जन के उपायों में ही व्यग्र रहकर पशु की तरह अपने अनमोल मानव जीवन को व्यर्थ ही गँवा रहा था। ___उधर धनदत्त के चित्त को देवी द्वारा तैयार करके दिया हुआ विवेक रूपी मणि का दीप अच्छी तरह से प्रकाश कर रहा था। अतः यथायोग्य व्यापार के द्वारा वह धनाढ्य बन गया। प्रायः संपत्ति उपार्जन करने में विवेक ही चतुराई को धारण करता है। शुद्ध भाव व सबुद्धि से युक्त वह हमेशा देवभक्ति करता था, क्योंकि वह मानता था कि देवभक्ति ही सर्व
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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