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________________ 269/श्री दान-प्रदीप द्वारा उसे संतुष्ट किया। उसके बाद केवली ने उन सभी को धर्मदेशना दी, क्योंकि जिसके पास जो माल होता है, वह उसे वही दिखाता है। देशना इस प्रकार थी ___ "पुण्य के द्वारा ही मनुष्य का उत्तम कुल में जन्म होता है। पाँचों इन्द्रियों की सुन्दरता प्राप्त होती है। अनुपम राज्यादि समृद्धि प्राप्त होती है। प्रशंसनीय अद्भुत भोगों की प्राप्ति होती है। स्त्री-पुत्रादि का संबंध मन में प्रीति पैदा करता है। सुकृत के द्वारा मनुष्य को क्या-क्या शुभ प्राप्त नहीं होता? इसके विपरीत नीच कुल में जन्म, कुटुम्ब का क्लेश, प्रिय वस्तु का वियोग, अप्रिय का संयोग, दरिद्रता, दुर्भाग्य और शत्रुओं से पराभव-ये सभी प्राणियों के पापों का ही प्रतिफल है। हिंसा, असत्य, चोरी, कशील सेवनादि समग्र पापों को छोड़कर हे विवेकीजनों! धर्मविधि में उद्यम करो, जिससे कि लक्ष्मी स्वयं आकर तुम्हारा वरण करे।" इस प्रकार गुरु के पास से अमृतोपम उपदेश सुनकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने गुरु को नमस्कार करके निर्मल वाणी द्वारा पूछा-"मेरे बलवान होने के बावजूद उस जयमन्त्री ने मेरा राज्य हथिया लिया वह किस कर्म के उदय से? किस कर्म के द्वारा शृंगारसुन्दरी को दुःसह वेदना सहन करनी पड़ी? मैंने किस कर्म के द्वारा अधिकाधिक राज्यलक्ष्मी को प्राप्त किया? किस कर्म के उदय से कनकमंजरी को कोढ़ हुआ? गुणमंजरी किस कर्म के कारण अन्धता को प्राप्त हुई? किस कर्म से वे दोनों स्वस्थ बनी? किस कर्म के द्वारा मैंने उस दुर्लभ रस को प्राप्त किया?" इन प्रश्नों को सुनकर केवली ने कहा-“हे राजा! यह सारा वृत्तान्त मैं तुम्हें बताता हूं। तुम एकाग्रचित्त से सुनो इसी भरतक्षेत्र में पुरुषरत्नों से शोभित रत्नपुर नामक नगर है। उसमें रत्नवीर नामक राजा राज्य करता था। वह पुण्यकर्म के द्वारा पवित्र था। वह शत्रुओं के पंचत्व को विस्तृत करते हुए भी उनके कुल का क्षय ही करता था। उस राजा के लावण्यादि से युक्त श्रीदेवी आदि नौ स्त्रियाँ थीं। पृथ्वीखण्ड के सारभूत पदार्थों को लेकर उनका निर्माण किया गया हो-इस प्रकार से वे शोभित होती थीं। ___ उसी नगर में सिद्धदत्त और धनदत्त नामक दो वणिकपुत्र बाल्यावस्था से ही परस्पर गाढ़ मैत्री से युक्त थे। वे दोनों अल्प समृद्धियुक्त थे। अतः महाजनों के मध्य वे मान-सत्कार को नहीं पाते थे। इससे वे खेदखिन्न रहा करते थे कि-"धन के बिना मनुष्यों को दान, सन्मान, स्वजनपना, विवेकीपना आदि कुछ भी प्राप्त नहीं होता। धनहीन के समक्ष कोई देखता भी नहीं। धन के लिए हमने हजारों उद्यम किये, पर एक भी उपाय हमें अवकेशी के वृक्ष की तरह फलीभूत नहीं हुआ। अब हमें धनप्राप्ति का कोई ऐसा उपाय करना चाहिए,
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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