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________________ 267/ श्री दान- प्रदीप भी देवी के आदेश से विशाल परिवार से युक्त होकर शीघ्र ही यहां पधारनेवाले हैं।”? इस प्रकार वह पुरुष बता ही रहा था, तभी अमात्यों, सामन्तों व सेना के विशालं परिवार से परिवृत्त रत्नसेन राजा वाद्यन्त्रों के द्वारा आकाश को गुंजायमान बनाते हुए वहां आ पहुँचा। रत्नपाल राजा को देखकर आनन्दित होते हुए उसने उनको प्रणाम किया। फिर मनुष्यों को आश्चर्यान्वित करनेवाले शानदार महोत्सव के साथ उनका पुर - प्रवेश करवाया। अशन, पानादि के द्वारा उनका सत्कार करने के बाद रत्नसेन राजा ने रत्नपाल राजा से प्रार्थना की- "हे स्वामी! इन दोनों कन्याओं को आप स्वस्थ बनायें, क्योंकि देवी ने ऐसा ही कहा है।" यह सुनकर रत्नपाल राजा ने अपने बाजुबन्ध में रखे हुए उस रस के द्वारा कोढ़ से दूषित कन्या के कपाल पर तिलक किया । तुरन्त ही ऋजुता से दुर्जनता की तरह और उदारता से अपयश की तरह उस रस के प्रभाव से उसका दुष्ट कुष्ठरोग नष्ट हो गया । दावानल से हुई बेल जिस प्रकार नववृष्टि के द्वारा जल के सिंचन से अधिक शोभायुक्त बनती है, उसी तरह उस कन्या की रूपलक्ष्मी भी पहले से अधिक मनोहर बन गयी। फिर राजा ने दूसरी कन्या के नेत्रों मे रस का अंजन लगाया । तत्काल उसकी भी समग्र वेदना उपशान्त हो गयी । सूर्योदय से कमल की तरह उसके नेत्र विकस्वर हो गये । दिन में भी आकाश में रहे हुए तारों को देखने में भी वह समर्थ बन गयी । फिर रत्नसेन राजा ने अत्यन्त प्रसन्न होते हुए रत्नपाल राजा से कहा-“हे स्वामी! जिस प्रकार आपने इन दोनों कन्याओं को स्वस्थ करके हम सबको दुःखसागर से उबारा है, उसी प्रकार इनके साथ पाणिग्रहण करके हमें चिन्तासागर से भी बाहर निकालें, जिससे मैं निवृत होकर आत्म साधना कर पाऊँ ।" उनकी प्रार्थना के कारण रत्नसेन राजा द्वारा किये हुए विशाल समारोहपूर्वक रत्नपाल राजा ने उन दोनों कन्याओं से विवाह किया। जहां पुण्य हो, वहां क्या-क्या सम्पदा नहीं होती? उसके बाद पूर्व में अपनी पुत्रियों के असाध्य रोगों से उत्कट वैराग्य को प्राप्त राजा रत्नसेन शुद्ध चित्त से विचार करने लगा - "लाखों वर्ष बीत जाने पर भी मुझे एक भी पुत्र प्राप्त नहीं हुआ। अब उसकी आशा भी रखना मेरे लिए योग्य नहीं है। अब तो वृद्धावस्था के कारण धर्म का सेवन ही मेरे लिए योग्य है । पण्डितों के द्वारा वृद्धावस्था में विषयासक्ति रखना विडम्बना मात्र ही है। मुझे मेरे पुण्य से राज्यभार का वहन करने में धुरन्धर जामाता भी मिल गया है। अतः उस पर सारा राज्यभार डालकर मेरे लिए दीक्षा लेना ही योग्य है। जो वृद्धावस्था का मुख देखे बिना ही रजनी की तरह राज्य का त्याग करके संयम रूपी ऐश्वर्य को अंगीकार करते हैं, उन राजाओं को धन्य है । जो इस शरीर की सहायता से मोक्ष
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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