SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 263 / श्री दान- प्रदीप रोटी पकाता था । फिर रात्रि में चण्डिका देवी के मन्दिर में जाकर उसकी मूर्त्ति के खन्धे पर पैर रखकर दीप का तेल लेकर उससे रोटी चोपड़कर वह निःशूकपने (अशुचिपने से रहित होकर रोटी खाता था । यह सब रोज-रोज देखकर एक बार कुपित होते हुए चण्डिका देवी ने उसे डराने का विचार किया । अतः उसने सर्पिणी के समान भयंकर जिह्वा मुख से बाहर निकाली। यह देख उस जुआरी ने निःशंक होकर रोटी का एक टुकड़ा उसके मुख में डाल दिया। उस देवी ने माया द्वारा उसे खा लिया और फिर से जीभ बाहर निकाली। तब उस जुआरी ने चिल्लाते हुए कहा - "अरे रांड चण्डिका! मेरी रोटी खाने में लुब्ध बनी है?" इस प्रकार आक्रोश करके उसके मुख पर थूक दिया। उससे खेदित होते हुए उस देवी ने विचार किया कि इस दुष्ट के थूक से झूठी हुई जीभ को अब मैं भीतर कैसे लूँ? अतः वह उसी स्थिति में रही अर्थात् जीभ बाहर निकालकर ही रही । प्रातः काल होने पर देवी को उस अवस्था में देखकर किसी उत्पात की आशंका से भक्तजनों ने सैकड़ों शान्तिकर्म किये और करवाये। पर देवी ने जीभ मुख के भीतर नहीं डाली। अतः अत्यन्त शंकातुर होकर लोगों ने यह उद्घोषणा करवायी कि जो पुरुष इस उत्पात का छेदन करेगा, उसे सौ स्वर्णमुद्रा दी जायगी । यह सुनकर उस दुष्ट जुआरी ने उस पटह का स्पर्श कर लिया। फिर वह देवी के मन्दिर में गया। सभी जनों को मन्दिर से बाहर निकाला। फिर एक विशाल शिला हाथ में लेकर उद्दण्डतापूर्वक देवी से कहा - "अरे! अपने आपको पण्डित माननेवाली चण्डी ! जिहवा को वापस मुख में ले, अन्यथा अभी इस पत्थर के द्वारा तेरे सौ टुकड़े कर दूंगा ।" यह सुनकर तथा उसको निःशूक और धृष्ट जानकर देवी ने अत्यन्त शंकित होते हुए अन्य कोई उपाय न देखकर तत्काल जीभ मुख के भीतर ले ली । यह देखकर ग्राम के लोगों ने हर्षित होते हुए स्वीकृत राशि उसे भेंट में दे दी। उस धन को उसी दिन उस जुआरी ने जुगार में गँवा दिया। फिर से पहले की तरह वह रोटी पर दीपक का तेल लगाकर खाने लगा, क्योंकि जो जिसमें लुब्ध होता है, उसके लिए उसे छोड़ना अशक्य होता है। देवी उस पर अत्यन्त क्रोधित थी, उसका कुछ भी अपकार करना चाहती थी। पर उस अत्यन्त साहसिक दुष्ट पर वक्र दृष्टि से देखने में भी समर्थ नहीं हुई । खेदित होते हुए देवी ने आखिरकार वह दीपक ही अपनी दिव्य शक्ति द्वारा मन्दिर से बाहर कर दिया। जिसे हांका न जा सके- ऐसा कुत्ता जब भोजन करनेवाले के पास आता है, तब वह भी थाली को बीच में ही आधी छोड़कर उठ जाता है। वह जुआरी भी उसके पीछे दौड़ा और कहा - "अरे दीपक ! रुक। कहां जाता है? जैसे कर्म जीव की पीठ नहीं छोड़ता, उसी प्रकार मैं भी तुझे नहीं छोडूंगा ।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy