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________________ 261 / श्री दान- प्रदीप वह किसी भी स्थान पर नहीं मिला। तब उस कन्या ने प्रण ले लिया कि जब तक वह वलय नहीं मिल जाता, तब तक वह भोजन नहीं करेगी। उस वलय की प्राप्ति के लिए वह तपस्वी की भाँति फलाहार करने लगी। फिर राजा ने किसी दिन किसी निमित्तज्ञ से पूछा, तो उसने बताया कि उस वलय को ग्रहण करनेवाला पुरुष स्वयं ही इस कन्या के स्वयंवर में आकर इससे विवाह करेगा। हेमांगद राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ । निमित्तज्ञ का सत्कार करके भेंटादि देकर उसे विदा किया और फिर उत्कण्ठापूर्वक स्वयंवर का आयोजन करवाया। सभी विद्याधर राजाओं को बुलाने के लिए राजसेवक भेजे गये हैं । अतः हे स्वामी! आपको आमन्त्रित करने के लिए मुझे यहां भेजा है। आपके साथ विशेष प्रीति होने से आपके आगमन की तो वे हार्दिक इच्छा करते हैं । अतः हे स्वामी! आप वहां पधारकर मित्र के हर्ष की वृद्धि कीजिए।" यह सुनकर महाबल और रत्नपाल राजा परिवार सहित विद्याधरेन्द्र हेमांगद के नगर में गये। अन्य खेचरेश्वर भी वहां शीघ्रतापूर्वक आये। हेमांगद राजा ने योग्यतानुसार सभी का सत्कार किया। फिर शुभ दिवस पर सभी राजाओं को स्वयंवर के मण्डप में ऊँचे मचानों पर उनकी गुरुता के अनुसार आसन प्रदान किया । फिर वाद्यन्त्रों के नादपूर्वक सर्वांग से विभूषित की हुई अपनी कन्या को राजा ने सुखासन में बिठाकर वहां मण्डप में बुलवाया। फिर सभी के समक्ष राजा ने कहा - " हे पुत्री ! ये सभी राजा तुझे वरने के लिए यहां पधारे हैं। तूं अपनी इच्छानुसार योग्य वर का वरण कर ।" उसके बाद राजा की आज्ञा से एक निपुण दासी प्रत्येक राजा की झलक उसे दिखलाकर उनका वर्णन करने लगी। उन सभी को देखते व उनके परिचय को सुनते हुए वह कन्या आगे बढ़ने लगी । पर वह कन्या किसी भी राजा की कान्ति, मुख, वक्षस्थल, नेत्र, मस्तक, मुकुट, वेष, नखों की कान्ति, श्रृंगार या आकृति को नहीं देख रही थी । एकमात्र बार-बार वलय के भूषण रूप हाथों को ही देखती जा रही थी । वलय - रहित हाथों को देखते-देखते सौभाग्य द्वारा कामदेव को भी पराभव प्राप्त करानेवाले उन राजाओं को दुर्भागी की तरह तजकर आगे बढ़ रही थी । अन्त में वलय द्वारा हाथ को शोभित करनेवाले और नेत्रों को आनन्द प्रदान करनेवाले रत्नपाल को देखकर वह कन्या अत्यन्त हर्ष को प्राप्त हुई। उसी राजा के आगे वह उत्सुकतापूर्वक खड़ी रह गयी । दासी ने उस राजा को पहले कभी नहीं देखा था, अतः वह उसके बारे में कुछ भी नहीं बोल पायी। पर फिर भी शंखकण्ठी उस कन्या ने उसी राजा के गले में वरमाला डाल दी, क्योंकि स्वयंवरा कन्याओं की अपनी इच्छा ही प्रमाण होती है । अपनी कन्या द्वारा वरण किये हुए रत्नपाल राजा को बार-बार देखते हुए हेमांगद ने अपने मित्र को पहचान लिया । अतः वह अत्यन्त हर्षित हुआ। पर अन्य 1
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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