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________________ 256/श्री दान-प्रदीप बार-बार निरखते हुए अपने नेत्रों को पवित्र किया। स्तुति करके अपनी वाणी को पवित्र किया और ध्यान करके अपने मन को पवित्र किया। उसके बाद जगती पर फिरने लगा और चारों तरफ की अद्भुत रमणीयता को देखने लगा। तभी सौभाग्यमंजरी के नाम से अंकित एक कंगन उसे वहां गिरा हुआ मिला। उसमें जड़े हुए रत्नों की कान्ति से आकाश जगमगा रहा था। उसने उस कंगन को उठा लिया। प्रभात होते-होते वह अपने सैन्य के पास पहुँच गया। वहां से प्रयाण करके वह अनुक्रम से सैन्य-सहित पाटलिपुत्र नगर के समीप पहुँचा। उसे आता देखकर जयराजा गर्व से समग्र सैन्य को तैयार करके उसके सामने युद्ध करने के लिए चला। उन दोनों के सैन्य में कहीं तलवार के साथ तलवार का, तो कहीं भाले के साथ भाले का, कहीं बाणों के साथ बाणों का युद्ध शुरु हो गया। युद्ध में जय राजा ने अपनी समग्र सेना को भग्न हुआ जानकर रत्नपाल राजा के समग्र सैन्य पर अवस्वापिनी निद्रा छोड़ी। जिससे मूर्च्छित के समान अथवा तो विष के आवेश को प्राप्त हुए के समान सभी सैनिक चेतनारहित होकर पृथ्वी पर घूर्णित होकर गिर गये। पर पुण्योदय को प्राप्त रत्नपाल राजा का वह निद्रा कुछ भी पराभव न कर सकी। दुष्ट मंत्र पुण्यरहित जीवों पर समर्थ बन सकते हैं, पर पुण्यशालियों पर उनका कुछ भी असर नहीं होता। रत्नपाल राजा अपने समग्र सैन्य को मूर्च्छित देखकर क्षणभर के लिए चिन्तातुर हुआ। 'अब क्या करूं?'-इस विचार से आकुल-व्याकुल भी बना। तभी जिस श्रावक की उसने सेवा की थी और जो मरकर देव बना था, उसने अपने अवधिज्ञान से राजा की आपत्ति को देखा, तो तत्काल वहां आया। उसने सभी की अवस्वापिनी निद्रा का हरण कर लिया, जिससे समग्र सैन्य दुगुने उत्साह के साथ युद्ध करने के लिए तत्पर हो गया। राजा ने भी दुगुने उत्साह के साथ पुनः युद्ध शुरु कर दिया और जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने कंस पर विजय प्राप्त की थी, उसी तरह जय का हनन किया। वह अधम मंत्री मरकर सातवीं नरक में गया। ऐसे दुष्कर्मियों का स्थान नरक में ही होता है। अन्य मंत्री, सामन्त, सेनापति आदि सभी ने पूर्व के सेवकों ने बार-बार मुख नीचा किये हुए राजा से क्षमायाचना करते हुए उसकी विनय प्रतिपत्ति की। फिर उस देव ने प्रत्यक्ष होकर राजा से कहा-“हे राजन! आपने जिस श्रावक की शुश्रूषा की थी, मैं वही हूं, जो मरकर देव बना हूं। परदेश में बीमार पड़ने के बावजूद भी जो मैंने यह विपुल संपत्ति प्राप्त की है, यह बाह्य और आभ्यन्तर चिकित्स करनेवाले आप जैसे राजा का ही उपकार है। आपकी सहायता करने की इच्छा से ही मैं यहां आया हूं। आपके सैन्य की अवस्वापिनी निद्रादि का हरण भी मैंने ही किया है। मैं आप पर सैकड़ों उपकार करूं, तो भी आपके आपके ऋण से मुक्त नहीं हो पाऊँगा, क्योंकि धर्मोपकार करनेवाले व्यक्ति के ऋण को कभी उतारा नहीं जा सकता।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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