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________________ 253/श्री दान-प्रदीप उधर रत्नपाल राजा को उस जयमन्त्री ने शून्य वन में छुड़वाया था। वह जिस समय सोया था, उसी समय पर अपने आप जागृत हुआ। चारों तरफ शून्य अरण्य देखकर भ्रान्त होते हुए मन में विचार करने लगा-"यह मुझे क्या हुआ? अच्छा! जान लिया कि दुष्ट हृदयवालों में शिरोमणि उस अधम मंत्री ने राज्य पर अपना अधिकार करके यह दुष्ट चेष्टा की है। हहा! गोद में सोये हुए का गला काटने और कुएँ में उतारकर डोरी काटने के समान यह निकृष्ट कार्य उस अधम ने किया है। पर उसका भी क्या दोष? मुझ दुष्टमति का ही यह दोष है कि मैंने मूर्ख बनकर सभी कार्यों में उसका विश्वास किया। अहो! मुझे धिक्कार है! कि मैंने पिताश्री के वचनों का निरादर करते हुए विषवृक्ष के समान विषयों का अत्यन्त आदर किया। उन पर अत्यन्त आसक्ति रखी। विद्वानों ने व्यसनों को दुरन्त आपत्ति का स्थान कहा है। यह सब मैंने आज अनुभव किया है। पर यह सब मेरे अनुल्लंघनीय पूर्व कर्मों का ही फल है। कर्म ही संपत्ति और विपत्ति के हेतु के रूप में अच्छी और खराब बुद्धि देता है। प्रलयकाल के समुद्र की तरह आ पड़नेवाले कर्म के परिपाक का इन्द्र, चक्रवर्ती या वासुदेव आदि कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता।" इस प्रकार विचार करके उसने अपने मन में धैर्य धारण किया। प्रातःकाल होने पर पंचपरमेष्टि का स्मरण करके वन में घूमते-घूमते किसी पर्वत को देखकर वह उस पर चढ़ गया। वहां दृढ़ बंधन से बांधे गये किसी उत्तम आकृतिवाले पुरुष को देखा। उसका हृदय दयार्द्र हो गया। अतः तुरन्त उसके बंधन तोड़ डाले। उत्तम पुरुष दूसरों की आपत्ति दूर करने में आलस्य नहीं करते। कुछ समय बाद उसके स्वस्थ हो जाने पर राजा ने उससे पूछा-"हे मित्र! तुम कौन हो? तुम्हारा निवास स्थान कहां है? तुम्हें इस तरह से किसने बांधा था?" इस प्रकार राजा ने उपकार व मिष्ट वचनों के द्वारा उसे प्रसन्न किया। तब उस पुरुष ने राजा को अपने भाई के समान मानते हुए उसे सारी हकीकत सत्य व यथार्थ रूप में बतायी-"अद्भुत विद्याओं के स्थान रूप वैताढ्य पर्वत पर गगन वल्लभ नामक नगर है। वहां सभी विद्याधरों में अग्रसर वल्लभ नामक राजा है। मैं उनका हेमांगद नामक पुत्र हूं। आज मैं मेरी प्रिया के साथ नन्दीश्वर द्वीप में देवों को वन्दन करने के लिए आकाशमार्ग से जा रहा था। तभी मेरे शत्रु विद्याधर ने श्येन पक्षी की तरह अकस्मात् आकर राक्षसी विद्या के बल द्वारा मुझे बांधकर मारा और मेरी प्रिया को लेकर चला गया। वह पापी यहीं कहीं पास में ही गया है। वह पुनः मुझे मारने की इच्छा से जरूर यहां आयगा। ___ हे महाभाग्यवान! मेरे जागृत सौभाग्य की वजह से ही आपका यहां शुभागमन हुआ है अन्यथा यम के समान उस दुष्ट से ग्रसित मेरा जीवन कहां बच पाता?"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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