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________________ 240/श्री दान-प्रदीप बन गये। कोई राजा तो इस प्रकार विचार करने लगा कि 'अहो! इसकी मूर्ति कितनी सुन्दर है! अहो! इसकी कान्ति कितनी दैदीप्यमान है!' इस प्रकार विचार करते हुए वह राजा अपने मस्तक को हिलाने लगा। 'यह कन्या तो देवों को भी दुर्लभ है, तो यह मेरा वरण कैसे कर सकती है?' इस प्रकार विचार करते हुए एक राजा मन ही मन में स्तब्ध हो गया। 'यह कन्या तो साक्षात् लक्ष्मी ही है और स्वयं कमल में क्रीड़ा कर रही है। ऐसा निश्चय करके किसी राजा ने हाथ में क्रीड़ा-कमल रख लिया। 'इस कन्या को अगर कोई दूसरा राजा ग्रहण करेगा, तो मैं बलात् इसका हरण कर लूंगा'-मानो ऐसा विचार करके कोई राजा उसे देखकर बार-बार अपनी भुजाओं पर दृष्टिपात कर रहा था। 'यह कन्या मुझे प्राप्त होगी या नहीं? क्या विधाता ने मेरे कपाल पर ऐसा लेख लिखा है?'-मानो ऐसा देखने के लिए कोई राजा मणियों के कंगन में प्रतिबिम्बित हुए अपने ही तिलक को देख रहा था। उस कन्या के लावण्य रूपी मदिरा का पान करके मानो बेभान होकर कोई राजा गवैये की तरह मधुर स्वर में गायन गाने लगा। कोई राजा मानो कामदेव रूपी पिशाच से ग्रस्त होते हुए पागल के समान मुख ऊपर करके बिना कारण ही हँसने लगा। इस प्रकार अनेक राजा अपनी चेष्टाओं के द्वारा अपने भावों को प्रकट कर रहे थे। उस समय उस राजपुत्री ने चारों तरफ अपनी सरल व निर्विकार दृष्टि डाली। फिर राजा की आज्ञा से प्रगल्भ वाणी से युक्त और सर्व राजाओं के नाम, कुल, आचार आदि को जाननेवाली प्रतिहारिनी ने उस कन्या से कहा-“हे देवी! आपको वरने की इच्छा से ये राजा यहां आये हैं और उन सभी की दृष्टि एकमात्र आप पर ही टिकी हुई है। अतः आप की जैसी इच्छा हो, उसी को वरें।" यह सुनकर मनोहर नेत्रयुक्त और सभी राजाओं के नेत्रों की अतिथि रूपी वह कन्या अपने नेत्रों को और ज्यादा विकसित करके सभी को विशेष दृष्टि से देखती हुई चलने लगी। उस समय वह प्रतिहारी प्रत्येक राजा का नामादि परिचय बताने लगी। उनमें से किसी को मौन के द्वारा, किसी को मुख वक्र करके, किसी को नासिका मरोड़कर, किसी को भृकुटि के भंग द्वारा, तो किसी को हाथ की संज्ञा के द्वारा इस तरह निषेध किया, जिस तरह रुचिरहित
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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