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________________ 233 / श्री दान- प्रदीप यात्राएँ करने लगा। वह विचारवान राजा दुस्तर भवसागर से तिरने में नाव के समान जिनेश्वरों की त्रिकाल पूजा करता था । एकाग्र बुद्धि से युक्त वह भव रोग के समूह को हरने के लिए औषध के समान पौषध, आवश्यकादि पुण्यकार्यों का सेवन करने लगा। इस प्रकार धर्म की आराधना करते हुए अद्वितीय सुख को भोगते हुए उसने चिरकाल तक इन्द्र की तरह साम्राज्य का पालन किया । के द्वारा एक बार नगरी के बाहर उद्यान में श्रीगुरुदेव पधारे। उनके पास जाकर राजा ने संसार के ताप का नाश करनेवाली इस प्रकार की धर्मदेशना का श्रवण किया - " जो प्राणी मनुष्यादि सामग्री पाकर धर्म का आदर नहीं करता, वह मूर्ख रोहणाचल पर्वत को पाकर भी मणि को ग्रहण नहीं कर पाता - ऐसा जानना चाहिए । कषाय रूपी अग्नि की ज्वाला के समूह भयंकर इस भव अटवी में संसार से भयभीत बने जीवों के लिए शरण के लायक धर्म ही उच्च स्थान पर आसीन है। जिनका चित्त विषय में आसक्त होता है, उन्हें धर्म उचित रूप से परिणमित नहीं होता। क्या नील से रंगे वस्त्रों पर केसर का रंग चढ़ता है ? विष की तरह विषयों का त्याग करके जो अच्छी तरह से धर्म का सेवन करता है, उन्हीं का मनुष्य भव सफल है। यह शरीर नदी के किनारे रही हुई रेत से बनाये हुए क्रीड़ास्थल की तरह क्षणिक है । लक्ष्मी रुई की श्रेणि के समान चंचल है। युवावस्था हाथी के कानों की तरह चपल है । बल वायु के समान अस्थिर है। भोग विशाल तरंगों की तरह अत्यन्त भंगुर है । प्रिय वस्तुओं का समागम स्वप्न के समान है। एकमात्र धर्म ही आत्मा के साथ रहनेवाला, सुखकारक और निश्चल है । वह धर्म जिनेश्वर - कथित ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप है । उस धर्म का यथार्थ आराधन करने के लिए सर्व संवर को धारण करनेवाला पुरुष ही शक्तिमान है। उस संवर धर्म का आराधन करके ही अनंत जीव सिद्ध हुए हैं, सिद्ध होते हैं और सिद्ध होंगे। अतः धर्म में ही यत्न करना योग्य है ।" इस प्रकार श्रीगुरु रूपी मेघ ने अत्यन्त निर्मल पुण्यामृत की वृष्टि की। तब राजा के मन रूपी पृथ्वी पर चारित्र धर्म के अंकुर प्रस्फुटित हुए । समता रूपी सरोवर भर गया। लोभ रूपी अग्नि अत्यन्त शान्त हो गयी और वैराग्य रूपी नदी तत्काल चारों तरफ से अत्यन्त उत्कृष्ट पूर को प्राप्त हुई उसके बाद विद्याधर राजा ने तत्काल अपने पुत्र को राज्य सौंप दिया। अरिहन्तों के चैत्य में विशाल अट्ठाई महोत्सव किया। फिर पुत्र ने उनका दीक्षा - महोत्सव किया। इस प्रकार आत्मा का दमन करनेवाले उस राजा ने मदनमंजरी के साथ गुरुचरणों में जाकर हर्षपूर्वक दीक्षा अंगीकार की। चिरकाल तक निरतिचार चारित्र का पालन करके अन्त में उन दोनों ने विधिपूर्वक अनशन ग्रहण करके देवसंपत्ति को पाया। वहां से च्यवकर धर्मश्रद्धादि के द्वारा मनोहर मनुष्य
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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