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________________ 225/श्री दान-प्रदीप हुए चन्द्र की कला की तरह अनेक प्रकार से वृद्धि को प्राप्त हुई। उसे सभी व्यापारों में लाभ ही लाभ होन लगा। अपने शुभकर्म सन्मुख हो, तो सब कुछ शुभ ही होता है। वह अपने न्यायोपार्जित धन को अच्छे स्थान की प्राप्ति से अच्छे लाभ की इच्छा रखकर मानो थापण रख रहा हो-इस प्रकार से सुपात्रदान में खर्च करता था। उसके अत्यन्त उच्च दशा को प्राप्त पुण्य रूपी मेघ के योग से वर्षाकाल की नदी की तरह उसकी लक्ष्मी वृद्धि को प्राप्त हुई। धन की वृद्धि होने से उसकी प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई, क्योंकि दीप अधिक प्रदीप्त होता है, तो उसके प्रकाश में भी वृद्धि होती है। __उधर छोटे भाई की लक्ष्मी कृष्णपक्ष को प्राप्त चन्द्र की कान्ति की तरह क्षण-क्षण क्षीण होने लगी। उसने लाभ की आशा में हर्षपूर्वक अपने धन को व्यापार में लगाया, पर अभाग्य के कारण हाथ में रहे हुए पानी की तरह वह धन अल्प होने लगा। उसके धन पर अग्नि, चोर, जल और राजा का उपद्रव होने लगा। विधाता प्रतिकूल हो, तो सब कुछ विपरीत ही होता है। इस प्रकार अनुक्रम से दिन-दिन कम होती हुई उसकी लक्ष्मी उत्कर्ष को प्राप्त ग्रीष्मऋतु के तालाब की तरह अत्यन्त कृश हो गयी। धन के क्षीण होने से उसके गुण भी क्षीण हो गये। सूर्य के अस्त होने के बाद क्या उसकी किरणें स्फुरायमान होती हैं? उसके गुणों का नाश हो जाने से उसकी कीर्ति भी चारों तरफ से नाश को प्राप्त होने लगी। दीप के बुझने के बाद उसका प्रकाश भी नष्ट हो ही जाता है। सुख के विकास को सर्वथा प्रकार से नष्ट करनेवाली उसकी निर्धनता इतनी ज्यादा बढ़ी कि खाने-पीने की विधि भी सन्देहजनक प्रतीत होने लगी। निर्धनता से दुःखी होकर वह अपनी पूर्व की अद्भुत समृद्धि को याद कर-करके खेद रूपी समुद्र में डूबने लगा। निर्धन बनने के बाद उसे अपने बड़े भाई की संपत्ति का प्रकर्ष तृषा से पीड़ित पथिक को ग्रीष्मऋतु के ताप की तरह अत्यन्त दुःखदायक लगने लगा। किसी भी स्थान से उसे धन प्राप्त न हो सका। अतः उसका हृदय अत्यन्त खेदखिन्न हो गया। उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी। भाई पर ईर्ष्या उत्पन्न होने से वह विचारने लगा-"निरन्तर खर्च करने के बाद भी मेरे भाई का धन कुएँ के जल की तरह अखूट दिखायी देता है और मेरा धन तो खर्च न करने के बावजूद भी अरण्य में रहे हुए तालाब के जल की तरह खत्म हो गया है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि उस मायावी भाई ने द्वेष के कारण मुझसे छिपाकर धन को कहीं गोपनीय स्थान पर रखा हुआ है। मायावी पुरुष क्या नहीं करते?" इस प्रकार विचार करके वह बड़े भाई के साथ कलह करने लगा। दो प्रकार के 'जड़ 1. जड़ अर्थात् मूर्ख और जल अर्थात् पानी-ये दोनों नीचे-नीचे के स्थानों पर जानेवाले ही होते हैं।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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