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________________ 222/ श्री दान-प्रदीप के लिए जाया करता था, क्योंकि जो कला धर्म के लिए उपयोगी होती है, वही सफल है। ____ एक बार वह विद्याधर राजा प्रिया और परिवार के साथ नंदनवन में जिनचैत्यों को वंदन करने के लिए गया। वहां पवित्र ज्ञान से शोभित चारण मुनियों को देखकर उन्हें प्रणाम करके उनके पास किंकर की तरह बैठ गया। उस समय मुनि ने उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त फलवाली धर्मलाभ की आशीष के द्वारा आनन्द प्राप्त करवाकर देशना के वाणी रूपी अमृतमय भोजन के द्वारा उन्हें तृप्त करते हुए फरमाया-“स्वर्ग व मोक्ष रूपी लक्ष्मी की आकांक्षा रखनेवाले बुद्धिमान पुरुषों को धर्म करना चाहिए, क्योंकि उस लक्ष्मी का मूल कारण धर्म ही है। वह दान, शील, तप और भाव के रूप में चार प्रकार का है। उसमें भी जिनेन्द्रों ने दान को प्रथम कहा है। उस दान के अनेकों भेद है, तो भी उनमें से पात्रदान करना सबसे श्रेष्ठ है। वह अगर विधिपूर्वक पात्र को दिया गया हो, अनंतगुणा फलदायक होता है। अहो! धन नामक सार्थवाह ने पात्रदान के प्रभाव से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होने तक अधिकाधिक समृद्धि प्राप्त की थी। पात्रदान रूपी कल्पवृक्ष की महिमा को कौन माप सकता है? क्योंकि शालिभद्र को प्राप्त संपत्ति तो उस कल्पवृक्ष के पुष्प रूप थी। जिनेश्वर का चैत्य, उनकी प्रतिमा, ज्ञान की पुस्तक और चार प्रकार का संघ-ये सात प्रकार के पात्र कहे जाते हैं। जो मनुष्य पात्र को थोड़ा भी दान देते हैं, उन्हें अक्षय लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। जो कुबुद्धि पुरुष दान का निषेध करते हैं, उन्हें संपत्तियाँ दूर से ही त्याग देती हैं। इस विषय पर भद्र और अतिमद्र की सत्य कथा सुनाता हूं। सावधान होकर सुनो ___ इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में पृथ्वी रूपी स्त्री के हृदय के हार के समान कांपिल्य नामक नगर था। वह नगर महलों के अग्र भाग पर फहराती हुई ध्वजाओं के बहाने से मानो अपनी समृद्धि के द्वारा स्वर्ग की तर्जना करता हुआ शोभित होता था। उसके प्रभाव के वैभव की सत्य स्तुति कौन कर सकता था? क्योंकि उसमें श्रीविमलनाथ भगवान ने स्वयं जन्म लिया था। उस नगर में अमित लक्ष्मी का स्थान जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उसने संग्राम में कभी भी अपने नाम को व्यर्थ नहीं किया था। उसी नगर में राजा की अत्यन्त प्रीति का पात्र वसंत नामक उत्तम श्रेष्ठी रहता था। वह पुण्य रूपी लता को विकसित करने में वसन्त ऋतु की तरह शोभित होता था। 'सुदर्शन के द्वारा शोभित और पुरुषोत्तमता को धारण करते हुए उसके नाम और गुणों से शोभित कमला नामक स्त्री थी। जैनधर्म रूपी राजा ने उन दोनों को अपनी राजधानी बना रखा था। अतः उसे दूर करने के लिए कुतर्क रूपी तस्कर समर्थ नहीं थे। उन दोनों के परस्पर अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त प्रीतिपूर्वक धर्म, अर्थ 1.समकित नामक चक्र। 2. पुरुषों में उत्तम/कृष्ण का दूसरा नाम ।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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