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________________ 215/श्री दान-प्रदीप आहुति का काम किया। उसका क्रोध अत्यन्त जाज्ज्वल्यमान बन गया। अतः उसने कठोर अन्तःकरण से युक्त सेवकों को फिर से आज्ञा प्रदान की। वे सेवक नगर में चारों और उस प्रकार के वर की तलाश करने लगे। नगर में भ्रमण करते हुए उन्हें चौराहे पर रहे हुए सर्वांग से झरते कोढ़ से युक्त संकुचित अंगोंवाला, हलन-चलन से रहित, जीर्ण वस्त्रों से युक्त तथा जिसका सम्पूर्ण शरीर मक्खियों से व्याप्त था, ऐसे पुरुष को देखा। यह देखकर मानो राजा की कृपा प्राप्त हुई हो-इस प्रकार से वे हर्षित हो गये। फिर उन्होंने उस पुरुष से कहा-"अरे! जल्दी से उठ। तुम्हें हमारे राजा ने बुलाया है। तेरे लावण्य का श्रवण करके राजा तुझे अपनी पुत्री देना चाहते हैं।" यह सुनकर मानो दुःख से पीड़ित बना हो-इस प्रकार से वह गद्गद् कण्ठ से बोला-“हे राजसेवकों! मुख ऊँचा करके मेरी हँसी क्यों उड़ाते हो? मैं तो वैसे भी निरन्तर दुष्ट दुर्दैव के द्वारा हनन किया जा रहा हूं। तुम्हारे द्वारा गिरे हुए पर पादुका का प्रहार करना योग्य नहीं है। कहां राजा की पुत्री और कहां मैं रंकों का नायक? बिचारे कौए की प्रिया हंसिनी कैसे बन सकती है?" इस प्रकार उस पुरुष के कहे जाने पर भी वे राजसेवक जबरन उसे कन्धों पर बिठाकर राजा के पास ले गये। सर्वांग से मनोहर गुणयुक्त वर को पाकर जैसे कन्या का पिता हर्षित होता है, वैसे ही राजा भी मनइच्छित वर मिल जाने से अत्यन्त प्रसन्न हुआ। राजा ने पुनः अपनी पुत्री से कहा-“हे मूर्ख! अगर तूं अभी भी सुख-सम्पत्ति का कारण मेरा प्रसाद माने, तो तुझे श्रेष्ठ अलंकारों के द्वारा दैदीप्यमान करके कामदेव के समान अत्यन्त मनोहर राजपुत्र के साथ परणाऊँ और अगर तुम अपने कर्मों का प्रसाद ही निश्चय रूप में मानती हो, तो तेरे कर्मों के फलस्वरूप आये हुए इस वर को तूं अंगीकार कर।" ___ यह सुनकर पुत्री ने हँसते हुए कहा-"अगर यह वर मेरे कर्मों के द्वारा लाया गया है और मेरे पिता के द्वारा सहमति है, तो मेरे लिए यही प्रमाण है।" ___तब उस कुष्ठी ने स्पष्ट वाणी के द्वारा राजा से कहा-"इसके साथ मेरे विवाह की बात आपके मुख से निकलना भी युक्तियुक्त नहीं है। कहां मैं रोगग्रस्त रंक और कहां यह सौभाग्य और भाग्य की भूमि रूप पुत्री? दावानल से दग्ध केरड़े का वृक्ष क्या कल्पलता के लिए आश्रय का स्थान बन सकता है? असाध्य व्याधि के कारण मैं आज या कल-कभी भी मर सकता हूं। तो फिर मुझ जैसे के साथ अपनी कन्या का विवाह करके कौन बुद्धिमान उसे दुःखी बनायगा?" यह सुनकर राजा ने उस कुष्ठी से कहा-"यह कन्या अपने पिता की शत्रु है। यह स्वयं
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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