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________________ 206 / श्री दान- प्रदीप राज्य संपत्ति के तुम मालिक बने हो ।" इस प्रकार अपने पूर्वभव को सुनकर करिराज राजा के मन में नवीन हर्ष का समूह उत्पन्न हुआ। उसी समय वृद्धिप्राप्त शुद्ध अध्यवसाय के कारण उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। जैसे बुद्धिमान पुरुष प्रातःकाल जागृत होने पर अपने समग्र रात्रि - संबंधी वृत्तान्त को जानता है, उसी प्रकार उस राजा ने गुरुकथित अपना संपूर्ण पूर्वभव साक्षात् देखा। तब उसने हर्षपूर्वक गुरुदेव को नमस्कार करके कहा - "हे पूज्य ! आपने मेरे पूर्वभव के बारे में जो बताया, वह मैंने अपने जातिस्मरण ज्ञान से वैसा ही प्रत्यक्ष देखा है । अहो ! स्वर्ग, मृत्यु व पाताल लोक के सर्व पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला आपका संयमी ज्ञान शोभायमान है । आपके ज्ञान के प्रकाश के सामने सूर्यादि भी खद्योत के बालक के समान प्रतीत होते हैं । अहो ! केवल मुनियों को आसनदान करने मात्र से मुझे इतना पुण्य हुआ। उस दान की अद्भुत महिमा मुझे प्राप्त हुई। अतः हे प्रभु! दीक्षा बिना तो संपूर्ण पुण्य प्राप्त नहीं होगा । अगर मुझमें योग्यता हो, तो आप मुझे दीक्षा प्रदान करें ।" यह सुनकर विचक्षण गुरु ने कहा - "भोग का फल देनेवाले कर्म के निषेक से अभी तुममें संयम की योग्यता नहीं है । अतः तुम श्रेष्ठ गृहस्थ धर्म को अंगीकार करो। " यह सुनकर श्रद्धानिधि और पण्डितों के स्वामी उस राजा ने श्री गुरु महाराज के पास हर्षपूर्वक सर्व कल्याण के उदयवाली लक्ष्मी को बांधने के समान बारह प्रकार का गृहीधर्म अंगीकार किया। फिर सामन्त, पुरोहितादि अनेक जन सुपात्रदानादि धर्मकार्यों में आदरयुक्त बने। साक्षात् जैसे बने हुए कार्य में कौनसे पुरुष प्रमाद करते हैं? फिर पुरजनों के साथ राजा गुरुदेव को नमन करके अपने नगर में लौट गया। शुद्ध मन से राजा ने कल्पवृक्ष की तरह उस धर्म की अंतःकरण से आदरपूर्वक आराधना की। उसने दैदीप्यमान स्वर्ण व मणिमय अनेक जिनप्रतिमाएँ भरवायीं । चित्त को आनन्द प्रदान करनेवाले अनेक चैत्य करवाये । निरन्तर अनेक सुपात्रों को बहुमान के साथ यात्राएँ करवायीं । चिरकाल तक विशाल सुसमृद्धि युक्त राज्य का उपभोग किया। अन्त में पापसमूह का नाश करने में निपुण दीक्षा अंगीकार करके सर्व कर्मों का क्षय करके उसने सिद्धि रूपी महल में अत्यन्त स्थिर आसन प्राप्त किया । इस प्रकार करिराज राजा के द्वारा मुनियों को आसनदान करने रूपी कल्पवृक्ष की इस फल रूपी ऋद्धि को सुनकर उत्तम फल की अभिलाषा करनेवाले हे पण्डितों! एकाग्र चित्त के साथ आप सभी उसका ही सेवन करें। ।। इति षष्ठम प्रकाश ।।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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