SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 204 / श्री दान- प्रदीप हो। मात्र ऊँचे आसन पर बैठने से ही मनुष्यों की उच्चता आंकना योग्य नहीं है, क्योंकि आभ्यन्तर गुणलक्ष्मी के बिना उच्चता शक्य नहीं है। जो मुनि वर्षाकाल के बिना ही पाट का उपयोग करते हैं, वे चारित्री नहीं कहला सकते, क्योंकि वे भ्रष्टाचारी हैं । इस विषय में आवश्यक निर्युक्ति में कहा है कि 'अवसन्न दो प्रकार का है - सर्व अवसन्न और देश अवसन्न | शेषकाल के आठ मास में जो पाट, पाटिया तथा रखी हुई औषधादि का उपयोग करे, वह सर्व अवसन्न जानना चाहिए ।' जिनेश्वरों की आज्ञा माननेवाले बुद्धिमान दातार के द्वारा भी मुनीश्वरों को सर्व वस्तु विधिपूर्वक ही दी जानी चाहिए, क्योंकि सर्वज्ञ की आज्ञानुसार जो दान दिया जाता है, वह महान फलसिद्धि के लिए ही होता है। विधि के बिना बोया गया बीज धान्य उत्पन्न करनेवाला नहीं बनता। मुनियों को विधिपूर्वक दिया गया आसन का दान स्वाति नक्षत्र में पड़े मेघ के जल की तरह 'मौक्तिक की लक्ष्मी के लिए होता है । अतः विवेकी पुरुष को सर्वज्ञ की आज्ञानुसार मुनियों को आसन का दान देना चाहिए, जिससे मोक्ष में आसन मिले।" इस प्रकार तत्त्वार्थ को दर्शानेवाली गुरुवाणी का श्रवण करके श्रेष्ठी अत्यन्त आनन्दित हुआ। उसने वह पाट अपने घर पर वापस भेज दिया। फिर अत्यन्त संवेगपूर्वक उसने अभिग्रह धारण किया कि - 'मैं निरन्तर समय-प्रमाण मुनियों को आसन का दान करूंगा।' फिर राजादि सभी नगरजनों ने सम्यक्त्व धर्म को अंगीकार किया और अत्यन्त प्रसन्न होते हुए अपने-अपने घर लौट गये । श्रेष्ठी ने गुरु को उस काल में बैठने योग्य निर्मल कम्बल प्रदान किया, मानो अपने लिए परलोक का भाता प्रदान किया। फिर मासकल्प पूर्ण होने पर श्रीगुरु ने अन्यत्र विहार कर दिया । पक्षियों व निःसंग मुनियों की स्थिति एक समान ही होती है। वे एक स्थान पर चिरकाल तक नहीं ठहरते । उत्कृष्ट धर्म के अनुष्ठान में तत्पर बुद्धिवाला वह श्रेष्ठी निरन्तर अपने अभिग्रह को अपने जीवन की तरह पालने लगा । T एक बार उस श्रेष्ठी के पूर्व पुण्य से प्रेरित पृथ्वी पर विचरण करते हुए धर्मसार गुरु फिर से उस नगर में पधारे। मानो उस श्रेष्ठी को अद्भुत साम्राज्य देने के लिए उन्होंने वहां पर वर्षावास किया। पुण्य रूपी लता को विकस्वर करने में वसंत ऋतु के समान गुरु के आगमन से कोयल की तरह श्रेष्ठी का मन अत्यन्त प्रसन्न हुआ । निःसीम भावना से युक्त वह श्रेष्ठी दिन-रात आवश्यकादि पुण्य क्रिया को विस्तारित करता था और गुरु की सेवा में तत्पर रहता था। राजादि अन्य सभी जन भी पुण्य रूपी सुगन्ध में लुब्ध बनकर उन गुरु की सेवा करते थे, जैसे कि भ्रमर कमल की सेवा करते हैं। श्रेष्ठी ने वर्षाकाल के आसन के लिए गुरु से प्रथम विज्ञप्ति की । कौनसा चेतनयुक्त प्राणी अपने आत्महित में उत्साहयुक्त नहीं 1. मोती / मोक्ष |
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy