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________________ 202/श्री दान-प्रदीप दिव्य महावृक्ष देखा। धूप, कपूर, पुष्पादि के द्वारा उस महावृक्ष की यथाविधि पूजा करके मानो राजा की चिन्ता का छेदन कर रहा हो-इस प्रकार से निरन्तर उस वृक्ष का छेदन करने लगा। फिर काष्ठ के दल को घर पर लाकर इन्द्र के हाथी के समान ही द्वितीय उत्कृष्ट गजेन्द्र बनाया। फिर शुभ दिन देखकर उसने वह हाथी राजा को अर्पित किया। राजा भी उस हाथी को सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त देखकर अत्यन्त आनन्द को प्राप्त हुआ। उस शिल्पी को उसकी कल्पना से परे अत्यन्त धन प्रदान किया, क्योंकि अद्भुत वस्तु का मूल्य आँककर उसकी लघुता करना योग्य नहीं होता। उसके बाद राजा उस विराट हस्ती पर आरूढ़ होकर आकाश में उड़ा। उस समय वह राजा ऐरावत पर आरूढ़ हुए इन्द्र की तरह शोभित हो रहा था। फिर पृथ्वी के अनेक ग्रामों, नगरों व देशों को देखते हुए राजा किसको विस्मय प्राप्त नहीं कराता था? जो शत्रु राजा के आधीन नहीं हो रहे थे, उन्हें भी राजा ने अकस्मात् आकाश मार्ग से बिजली की तरह उनके पास आकर अपने आधीन बना लिया। हाथी पर आरूढ़, अत्यन्त प्रौढ़ कान्ति से युक्त और सन्मुख न देखा जा सके तथा गरुड़ पर आरूढ़ कृष्ण की तरह उस राजा को देखकर समग्र शत्रु राजा बलवान होने पर भी किंकरों की तरह उसकी आज्ञा को मस्तक पर चढ़ाने लगे। इस प्रकार वह राजा एकछत्र निष्कंटक राज्य को भोगने लगा। पुरुषों को पूर्वसंचित पुण्य के द्वारा क्या-क्या प्राप्त नहीं होता? एक बार अतुल ज्ञान से शोभित श्रीधर्मघोष नामक उत्तम गुरुदेव ने पधारकर उस नगर के उद्यान को अलंकृत किया। उस समय वनपालक ने आकर राजा को बधाई देते हुए गुरुदेव के आगमन के समाचार दिये। यह सुनकर नवीन मेघ के आगमन से मोर की तरह राजा आनन्द को प्राप्त हुआ। राजा ने प्रीतिदान देकर उसे संतुष्ट किया । क्या विवेकी मनुष्य उचित कार्य करने में जरा भी प्रमाद करते हैं? उसके बाद समग्र सामन्तों, पुरजनों और परिवार सहित राजा तत्काल विकसित आनन्द के साथ उद्यान में गया। पापकर्म को दूर करनेवाले आचार्य देव को विधिपूर्वक नमन करके भक्तिरस से पुष्ट हुए राजादि सभी गुरु के समीप बैठे। सूरीन्द्र ने उन सभी को पाप रूपी अन्धकार का नाश करने में सूर्य की प्रभा के समान कल्याणकारी देशना प्रदान की। चन्द्रिका का पान करके चकोर पक्षी की तरह उस देशनामृत की तृप्ति का अनुभव करने के लिए उसका पान करके राजादि सभी ने अत्यन्त हर्ष रूपी दिव्य संपत्ति को प्राप्त किया। फिर अवसर पाकर विनय से अत्यन्त नम्र होकर राजा ने गुरुदेव से कहा-“हे पूज्य! आप जैसे महाज्ञानी गुरु सर्व जगत को जानते-देखते हैं। अतः कृपा करके मुझे बतायें कि चम्मच, पलंग और हाथी-ये तीन दिव्य वस्तुएँ तथा यह विशाल राज्य-समृद्धि मुझे किस पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त हुई है?" यह सुनकर जगतपूज्य श्री गुरुमहाराज ने कहा-“हे राजन! शुभ और अशुभ-जो कुछ
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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