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________________ 198/श्री दान-प्रदीप लाने की आज्ञा दी। तब उस लकुट ने उन सुभटों के सैन्य को कूट-कूटकर उनसे कामघट ले लिया और लाकर मंत्री को सौंप दिया। तब राजा ने मंत्री से कहा-"तुम्हारी वाणी सत्य साबित हुई। पर मेरे सैनिकों को तो वापस ठीक कर दो।" __मंत्री ने चामरों की वायु के द्वारा सैनिकों को स्वस्थ बना दिया। सत्पुरुषों की सम्पत्ति परोपकार करने में ही आदरयुक्त होती है। "अहो! धर्म में तुम्हारी बुद्धि कितनी स्थिर है! अहो! तुम्हारे धर्म का फल कैसा अद्भुत है!"-ऐसा कहकर राजा ने मंत्री को हर्षपूर्वक वस्त्रादि से सम्मानित किया। उसके बाद राजा को धर्म में प्रीति उत्पन्न हो जाने से हर्षित होते हुए उसने मंत्री के पास जैनधर्म को अंगीकार किया। फिर राजा और मंत्री ने चिरकाल तक राज्य का पालन किया और अद्भुत पुण्यकार्यों के द्वारा जिनशासन की निरन्तर भव्य प्रभावना की। अंत में दीक्षा ग्रहण करके तीव्र तपस्या के द्वारा कर्मों की निर्जरा करके अनन्त सुख रूपी सिद्धि को प्राप्त किया। इस प्रकार उन दोनों को ही धर्म के प्रभाव से ही काम, अर्थ और मोक्ष प्राप्त हुआ। अतः सभी पुरुषार्थों में मैं धर्म को ही प्रधान मानता हूं।" यह सुनकर वाद में आदरयुक्त चौथे पाये ने कहा-“हे बुद्धिमान! तुमने जो धर्म की प्रधानता कही है, वह सत्य है। पर वह कर्ममार्ग का आश्रय करके ही योग्य कहलाती है। उस मार्ग का मध्यम पुरुष ही आश्रय करते हैं। उत्तम पुरुष तो उसको स्वीकार ही नहीं करते, क्योंकि देव और मनुष्य-संबंधी दुःखमिश्रित सुख को प्राप्त करने की इच्छावाले मध्यम पुरुष विविध प्रकार के दानादि धर्म का आदर करते हैं। पर उत्तम पुरुष तो एकान्त सुखवाले मोक्ष की इच्छा करते हैं। इसी कारण से वे मोक्ष को प्राप्त करवानेवाले निष्कर्म मार्ग की आराधना करने के लिए उद्यमवंत होते हैं। वह इस प्रकार है _ विचारपूर्वक कार्य करनेवाले महात्मा व्यक्तियों की सर्व प्रवृत्ति बिना प्रयोजन के नहीं होती और वह प्रयोजन स्व–पर के ऊपर उपकार करना रूप है। वह उपकार सुख प्राप्त करने का कारण रूप है। जो सुख एकान्तिक होता है, वह अक्षय होता है। अगर वह दुःखमिश्रित न हो, तो ही तात्त्विक होता है। अन्य सुख तात्त्विक नहीं है। कोई भी सांसारिक सुख उस प्रकार का तात्त्विक नहीं हो सकता, क्योंकि सांसारिक सुख तात्त्विक सुख से विपरीत होता है। यह सभी को ज्ञात ही है। जैसे-अमृतमय भोजन, मणियों के विमान, देवांगनाएँ, वांछित अर्थ की सिद्धि और कल्पवृक्ष-इन सभी से उत्पन्न समग्र दैवीय सुख भी ईर्ष्यादि के कारण दुःखमय बन जाते हैं। वे परिणामस्वरूप तिर्यंचादि गति रूपी दुःख के प्रदाता बन जाते हैं। चक्रवर्ती के वैभवादि से उत्पन्न मनुष्य-संबंधी असंख्य सुख भी रोग, शोक, जन्मादि से मिश्रित है और परिणामस्वरूप नरकादि गति के प्रदाता हैं। अनुत्तर विमानवासी देवों को भी
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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