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________________ 195 / श्री दान- प्रदीप तब मंत्री ने कहा- "मुझे धर्म की प्राप्ति हो गयी है, इसके सिवाय मांगने के लिए अब और कुछ नहीं है।" यह सुनकर उसके संतोष से प्रसन्न हुए यक्ष ने उसे समग्र इच्छाओं की पूर्ति करनेवाला कामकुम्भ दिया और स्वयं अदृश्य हो गया। उसके बाद मंत्री तीन दिन तक तीर्थ की सेवा के द्वारा अपने जन्म को सफल करता हुआ कामकुम्भ के साथ अपने घर की और लौटा । मार्ग में लौटते हुए उसे वही राक्षस मिला। उसने कहा - " अब मैं तुम्हारा भक्षण करूंगा । " तब मंत्री ने कहा-“मेरे इस अपवित्र शरीर को खाने से तुम्हे क्या स्वाद आयगा? अतः हे दयालू! अमृत के समान मनोहर दिव्य आहार का तूं भोजन कर ।" यह सुनकर राक्षस ने कहा - "ठीक है । पर वह दिव्य आहार तूं मुझे जल्दी से दे । " तब मंत्री ने कामकुम्भ से कहकर वह दिव्य आहार उसे जल्दी से प्राप्त करवाया। उस भोजन को खाकर तृप्त होते हुए राक्षस ने कहा - " सभी इच्छित अर्थ को प्रदान करनेवाले मेरे इस दिव्य लकुट को तूं ग्रहण कर । पर हे महाशय ! इस कामकुम्भ को तूं मुझे दे । " यह सुनकर मंत्री ने उसे कामकुम्भ दे दिया । महान पुरुष किसी की प्रार्थना को अस्वीकार नहीं करते। फिर आगे जाते हुए मंत्री को मध्याह्न के समय क्षुधा लगी। तब काकुम्भ को लाने के लिए मंत्री ने लकुट को आज्ञा प्रदान की । उस लकुट ने राक्षस के पास जाकर एक श्रेष्ठ सुभट की तरह उस राक्षस को पीट-पीटकर वह कामकुम्भ लाकर मंत्री को सौंप दिया। कर्म की अनुकूलता से क्या-क्या वस्तु अनुकूल नहीं होती? मंत्री ने शत्रु के शस्त्र द्वारा ही शत्रु का नाश करके अपनी संपत्ति का विकास किया। फिर दोनों वस्तुओं को साथ लेकर मंत्री आगे की और चला। तभी रास्ते में शत्रुंजय को नमन करके लौटे एक यात्री - संघ को उसने देखा । उसे देखकर उसने विचार किया - "अहो ! मेरे पूर्व के अगण्य पुण्य अभी तक जागृत है, जिससे कि इस संघ ने अकस्मात् मेरे सामने आकर मेरी दृष्टि को पावन किया है। अतः अब मैं इस संघ की भक्ति करके मेरे जन्म को सफल बनाऊँ, क्योंकि तीर्थयात्रा करनेवालों का सत्कार करने से अनंत पुण्य बंधता है ।" 1 इस प्रकार का विचार करके निर्मल हृदययुक्त उस मंत्री ने भोजन के लिए उस समस्त संघ को भक्तिपूर्वक निमंत्रित किया । ऐसे कार्य में कौन प्रमाद करे ? फिर कामकुम्भ के प्रभाव से तुरन्त तैयार की गयी दिव्य रसोई के द्वारा उसने पूरे श्रीसंघ को भोजन करवाया। फिर मन के उल्लास के साथ मनुष्यों के चित्त के अनुकूल रत्नजटित वस्त्रों के द्वारा सम्पूर्ण श्रीसंघ की पहेरामणी करवायी । यह सब देखकर तुष्ट हुए संघपति ने हर्षपूर्वक अत्यन्त प्रार्थना करके उस महात्मा मंत्री को दो चामर प्रदान किये, जिनके बीजने से उत्पन्न हुई वायु के द्वारा सर्व
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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