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________________ 193 / श्री दान- प्रदीप 1 द्वितीय पाये के कथन को सुनकर तीसरे पाये ने भी वादी की तरह कहा - " हे वादी ! तुमने जो अर्थ की ही प्रधानता बतायी है, वह अयोग्य है, क्योंकि अर्थ का कारण धर्म है धर्म के बिना प्राणियों को कभी भी अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती । शास्त्रों में भी सुना जाता है - शालिभद्र, जो कि पूर्वभव में संगम था, उसने पुण्य के प्रभाव से ही जगत को विस्मय में डालनेवाली दिव्य सम्पदा को प्राप्त की थी । अहो! एक ही दिन धर्म की आराधना करने से द्रमक भी तीन खण्ड का स्वामी सम्प्रति नामक राजा बना । अर्थ का कारण धर्म सिद्ध होने से काम का कारण भी धर्म ही सिद्ध होता है, क्योंकि अर्थ की प्राप्ति होने से काम की सर्वसम्पदा सुलभ होती है। जैसे दही और घी - दोनों का ही कारण दूध है, वैसे ही अर्थ और काम-दोनों का ही कारण धर्म है। धर्म में तत्पर रहनेवाले मनुष्य को इस भव में पग-पग पर संपत्तियाँ प्राप्त होती हैं । इस विषय पर धर्मबुद्ध नामक मंत्री की कथा है, जिसे तुम लोग सुनो “पृथ्वी का विभूषण रूप पृथ्वीभूषण नामक नगर है। उसमें रहे हुए मनुष्य सद्गुण रूपी आभूषणों के द्वारा अपनी आत्मा को शोभित करते थे। उस नगर में सार्थक नामयुक्त पापबुद्धि नामक राजा राज्य करता था । उसकी बुद्धि कभी भी मनोहर धर्म में भी आनन्द को प्राप्त नहीं होती थी । उस राजा के सद्विचारों से युक्त धर्मबुद्धि नामक मंत्री था । वह निरन्तर अपने नाम को सत्य अर्थ से युक्त बनाता हुआ रहता था । राजा दिन-रात व्यसनादि पापों में प्रवृत्ति करता रहता था । शूकर मल के बिना ओर कहीं भी आनन्द को प्राप्त नहीं होता । एक दिन प्रधान ने राजा से कहा - "हे पृथ्वीपति! आप पाप में प्रवृति न करें, क्योंकि जो पाप में प्रवृति करता है, उसकी संपत्तियाँ निरन्तर क्षीण हो जाती हैं । महान पुण्य होने पर भी अनीति लक्ष्मी का विनाश करती है। दीपक में अत्यधिक तेल होने पर भी क्या तेज वायु उसे बुझा नहीं देती? अतः आप पापों का त्याग करके धर्म का सम्यग् आराधन करें, जिससे दिन-दिन वृद्धियुक्त संपत्ति आपको प्राप्त हो ।" यह सुनकर राजा ने कहा - "इस जगत में दान, पुण्यादि करने के बाद भी किसी ने संपत्ति प्राप्त नहीं की, बल्कि धर्म में संपत्ति का व्यय करने से और धर्म की व्यग्रता के कारण नयी लक्ष्मी का उपार्जन न कर सकने के कारण पूर्वोपार्जित लक्ष्मी दिन-दिन हानि को ही प्राप्त होती है। तुम देखते ही हो कि सम्यग् प्रकार से धर्म की आराधना करने के बावजूद भी सैकड़ों मनुष्य दुर्भाग्य और दारिद्र्य के द्वारा अनेक प्रकार से दुःखी होते हैं। अगर तुम कहो कि परलोक में धर्म से सुख की प्राप्ति होती है, तो कौन बुद्धिमान व विद्वान पुरुष तुम्हारी इस बात पर श्रद्धा करेगा? उस अदृष्ट सुख के लिए कौन बुद्धिमान व्यर्थ ही आत्मा
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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