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________________ 191 / श्री दान- प्रदीप अभिग्रह उसने जीवनभर के लिए ग्रहण किया था । 'मेरी दानशाला में आपलोग निरन्तर भोजन करें व निरन्तर धर्मध्यान करें - ऐसा कहकर उसने अपने महल में लाखों साधर्मिकों को रखा हुआ था। उनमें से कितने ही लोगों ने ज्ञानादि त्रयरत्नों को प्रकट करने में कुशल स्वर्ण तीन डोरों के द्वारा अपने हृदय को शोभायमान बनाया था । 'हम हमेशा श्रावक के बारह व्रतों को धारण करते हैं - ऐसा दिखलाने के लिए कितने ही लोगों ने अपने शरीर पर बारह तिलक धारण कर रखे थे। कितने ही लोग अरिहन्त आदि के गुणसमूह की स्तुति रूपी पवित्रता के द्वारा शोभित चार वेदों का उच्च स्वर में घोष करते थे। कितने ही लोग पुष्पों को लाते थे, कुछ लोग अरिहन्तों की प्रतिमाओं को जल के द्वारा स्नात्र करवाते थे। कितने ही लोग दीपों को प्रकटाते थे। कुछ लोग सुगन्धित धूप जला रहे थे । कुछ लोग मोतियों द्वारा अष्टमंगल उकेर रहे थे। इस प्रकार अरिहन्तों की पूजा में लोग यत्न करते थे। कुछ लोग सामायिक लेकर पद्मासन पर बैठकर नासिका के अग्र भाग पर नेत्रों का स्थापन करके नमस्कार मंत्र का जाप करते थे । कुछ लोग श्रेष्ठ धर्मानुष्ठान में तत्पर बनकर अष्टकर्म रूपी दुष्ट ईंधन को जलाने के लिए उपवास, छट्ट, अट्ठमादि दुष्कर तप को करते थे । इस प्रकार धर्मक्रिया में उद्यमवंत वे श्रावक मूर्त्तिमान धर्म के समान प्रतीत होते थे, जिनको निरन्तर सर्व मनोरथ पूर्ण करनेवाला राजा भोजन करवाता था । प्राय: करके उसके घर पर सदैव एक करोड़ श्रावक भोजन करते थे। अतः उस राजा ने कोटिभोजी बिरुद धारण किया हुआ था । एक दिन स्वर्ग में रहे हुए इन्द्र ने उसकी धर्म के विषय में स्थिरता आदि अद्भुत गुणों की सम्पदा को देखकर अत्यन्त आश्चर्य किया । अतः उसकी परीक्षा करने के लिए वह स्वयं अयोध्या में आया। दूसरे करोड़ों श्रावकों की उसने विकुर्वणा की । करोड़ों नये-नये श्रावकों को आया हुआ देखकर दण्डवीर्य राजा ने अत्यन्त प्रसन्न होते हुए मन में विचार किया - " अहो ! मेरा कैसा भाग्य है! अहो ! मेरा कैसा भाग्य है !" फिर अपनी विशाल दानशाला में अपने भाइयों की तरह आदरसहित राजा ने स्वयं भक्तिपूर्वक उन्हें भोजन करवाया। पर इन्द्र फिर से नये-नये श्रावकों की विकुर्वणा करता चला गया। अतः समुद्र के जल की तरह नवागत श्रावकों का पार ही नहीं था । उन्हें भोजन करवाते हुए क्या अन्य किसी साधर्मिक की ऐसी भक्ति है - यह देखने की इच्छा से मानो सूर्य भी अस्त होता हुआ अन्य द्वीप में चला गया। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक श्रावकों की भक्ति करते हुए राजा के आठ उपवास हो गये, पर उसके हृदय में लेशमात्र भी क्लेश उत्पन्न नहीं हुआ । वह खिन्न भी नहीं हुआ, बल्कि उसका मन तो उल्लास को प्राप्त हुआ। तब इन्द्र ने अपना वास्तविक रूप प्रकट करके हर्षपूर्वक बार-बार उसकी प्रशंसा की - " हे दण्डवीर्य ! हे महा धैर्यवान! तूं चरम शरीरी है। तूं धन्य है, क्योंकि साधर्मिकों के विषय में तेरी भक्ति अद्भुत
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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