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________________ 178/श्री दान-प्रदीप उसके बाद राजा ने अपने महल में जाकर रत्नमंजरी के पुत्र रत्नशेखर को राज्य सौंपकर अन्य सभी परिवार का योग्यतानुसार सत्कार करके अमारि पटहपूर्वक जिनचैत्यों में अठाई महोत्सव का आयोजन किया। उसके बाद रत्नशेखर राजा ने उसका निष्क्रमण महोत्सव किया। वह दीन-हीन-याचकों को दान देने लगा। “चिरकाल तक आप चारित्र का पालन करें"-इस प्रकार पुरजनों की वाणी को कर्णपुटों में रमाते हुए वह राजा उद्यान में आया। उसने गुरुदेव से विज्ञप्ति की-“हे प्रभु! मुझ पर कृपा करके संसार रूपी गहरे कुएँ में गिरते हुए मुझे और मेरी पत्नी को व्रत रूपी रस्सी के द्वारा खींचकर बाहर निकालें।" यह सुनकर गुरुदेव ने राजा और रानी को दीक्षा प्रदान की। फिर राजर्षि ने थोड़े ही समय में ग्रहण और आसेवन शिक्षा ग्रहण की। इस तरह उस राजर्षि ने कुल्हाड़ी के समान पवित्र चारित्र के द्वारा थोड़े ही समय में कर्मों का उन्मूलन करके उन्हें निर्मूल करके मोक्ष पद को प्राप्त किया। इस प्रकार ग्रहण किया हुआ एक ही धर्मरत्न भी मोक्ष सुख आदि महाफलों को प्रदान करता है। अतः हे भव्यजीवों! ऐसे धर्मरत्नों का संग्रह करो, जिससे तुम्हें शीघ्रता से अद्भुत संपत्तियाँ प्राप्त हों।" इस प्रकार गुरु की धर्मदेशना का श्रवण करके शुभ भावयुक्त बनकर राजादि ने हर्षित होते हुए समकित की प्राप्ति की। फिर अवसर प्राप्त करके जिनके ज्ञान रूपी दर्पण में सर्व पदार्थ संक्रमित होते थे, ऐसे पूज्य गुरुदेव को स्वच्छ बुद्धियुक्त राजा ने पूछा-"हे पूज्य! इस पद्माकर ने पूर्वभव में क्या पुण्य किया था, जिससे कि देव भी उसे निरन्तर इच्छित संपत्ति प्रदान करते हैं? तब श्रीगुरुदेव ने फरमाया-“हे राजेन्द्र! इस पद्माकर ने पूर्वभव में जिस पुण्य का संचय किया था, वह मैं बताता हूं। तुम सुनो __ इस भरतक्षेत्र में भोगपुर नामक नगर है। उसमें चैत्य रत्नों के द्वारा निर्मित होने से रात्रि भी दिवस के समान ही प्रतीत होती थी। उस नगर में नंदनवन के समान नंदन नामक लक्ष्मीवान श्रेष्ठी था। उसके समकित आदि गुण कल्पवृक्ष के समान शोभित होते थे। एक बार ज्ञानसागर नामक सूरि महाराज अनेक साधुओं के परिवार के साथ चातुर्मास करने की इच्छा से वहां आये। स्वाध्याय, योग, ध्यान व तप की वृद्धि करनेवाले वे सभी साधु निर्दोष उपाश्रय में स्वस्थ चित्त से रहे। वर्षाकाल में पृथ्वी पर सभी जगह चक्षु से देखने में अशक्य सूक्ष्म, त्रस व स्थावर आदि अनेक सम्मूर्छिम जीव उत्पन्न होते हैं।उनकी विशेष प्रकार से रक्षा करने के लिए जिनेश्वरों ने मुनियों को वर्षाकाल में काष्ठ का शयन और आसन रखने की आज्ञा प्रदान की है। अतः श्रीगुरु की आज्ञा से आषाढ़ शुक्ला दशमी के
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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