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________________ 171/श्री दान-प्रदीप कर।" कुछ ही समय के पश्चात उस विद्याधर राजा के द्वारा प्रेषित सेवकों ने आकर तत्काल राजपुत्र को राजा की तरह चारों तरफ से घेर लिया। फिर उसे दीर्घ अश्व पर बिठाकर उत्सवपूर्वक नगर-प्रवेश करवाकर अत्यन्त समृद्धि से युक्त अलग एक महल में उसे रखा। फिर विद्याधर राजा स्वयं वहां आया। कामदेव के समान कुमार को देखकर अत्यन्त हर्षित होते हुए कहा-“हे महाभाग्यवान कुमार! जिस कार्य के लिए मैंने तुम्हे शीघ्रता से यहां बुलवाया है, उसका कारण सुनो। मेरी श्रीमती नामक रानी की कुक्षि रूपी शीप में मोती के समान अद्भुत गुणयुक्त और चौंसठ कलाओं की ज्ञाता रत्नमंजरी नामक पुत्री है। एक बार प्रातःकाल सभा में बैठे हुए मुझे प्रणाम करने के लिए उस कन्या को माता ने भेजा। तब उस नम्रतायुक्त कन्या को मैंने अपनी गोद में बिठाया। उस समय उसके मनोहर रूप को देखकर मैंने अपने सभासदों से कहा-“इसके अनुरूप किसी राजपुत्र की खोज करनी चाहिए।" उस समय किसी बंदीजन ने कहा-“हे देव! रत्नपुर के स्वामी रत्नांगद राजा का अतुल पराक्रमी, उत्तम भाग्ययुक्त, सौभाग्यशाली रत्नसार नामक कुमार है। वही लक्ष्मी को नारायण की तरह कुमारी के योग्य है।" इस प्रकार उसके वचनों को सुनकर वह कन्या तुम पर प्रीतियुक्त बनी। अन्य विद्याधर कुमारों का नाम सुनना भी पसन्द नहीं करती। किसी भी स्थान पर शांति न प्राप्त करती हुई वह तुम्हारे गुणसमूह को याद करते हुए कष्टपूर्वक अपना जीवन बिता रही है। अतः हम पर कृपा करके तुम उसके साथ विवाह करके हमें आनन्द प्रदान करो, क्योंकि जो श्रेष्ठ बुद्धियुक्त सत्पुरुष होते हैं, वे दूसरों की चित्तसमाधि के लिए ही कार्य करते हैं।" ___ यह सुनकर बुद्धिमान कुमार ने विद्याधर राजा से कहा-“हे राजन्! मैं अभी आपकी आज्ञा के ही आधीन हूं।" यह सुनकर प्रसन्न हुए राजा ने विद्याधरों और विद्याधरियों को विवाह के आवश्यक निर्देश दिये और स्वयं महल में लौट गया। फिर दोनों जगह शुभ मुहूर्त में मंगल गीत गानपूर्वक विवाह के उत्सव का शुभारम्भ हुआ। उसमें सौभाग्यवती स्त्रियों ने स्वर्णकुम्भों में लाये हुए तीर्थों के जल द्वारा हर्षपूर्वक वधू व वर को नहलाया। फिर चन्दन के रस द्वारा लेप किया। उस समय वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो पुण्य रूपी लक्ष्मी के कटाक्ष के समूह द्वारा चारों तरफ से व्याप्त हों। विवाह के अलंकारों, वस्त्रों व पुष्पों की माला के द्वारा भूषित किये गये वे दोनों उस समय चलते हुए कल्पवृक्ष और कल्पलता की तरह प्रतीत हो रहे थे। फिर सर्व समृद्धि से युक्त होकर विशाल अश्व पर आरूढ़ होकर
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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