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________________ 148/श्री दान-प्रदीप स्वर्णाभा को प्राप्त हुआ। उसके बाद मुनीश्वर ने उसकी धर्म की योग्यता को जानकर शिलापीठ पर बैठकर उसे धर्मोपदेश दिया-"हे बुद्धिमान! इस अपार संसार सागर में चिंतामणि रत्न के समान धर्म का योग पाकर उसे निरर्थक नहीं गुमाना चाहिए। सुखलक्ष्मी का इच्छित स्थान और कुकर्म के मर्मस्थान का वेधन करनेवाले धर्मकार्य में तुम निष्कपट भाव से उद्यम करो। वास्तव में धर्म के सामने कल्पवृक्ष भी काष्ठ के समान निःसार है, चिंतामणि रत्न पत्थर के समान है और कामधेनु गाय सामान्य पशु के समान है। विवेकी पुरुष को धर्म के द्वारा प्राप्त समृद्धि से धर्म की ही आराधना करनी चाहिए, क्योंकि अगर धर्म न किया जाय, तो स्वामिद्रोह के पाप के कारण अधोगति प्राप्त होती है। धर्म ही सर्व सुखों की अक्षय खान है। अतः सुख की इच्छा करनेवाले पुरुष को धर्म में निरन्तर यत्न करना चाहिए। वह धर्म साधु और श्रावक के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। उसमें से तुम श्रावकधर्म को अंगीकार करो, क्योंकि अभी तुममें उसकी ही योग्यता है।" इस प्रकार की मुनि की वाणी का श्रवण करके उसकी बुद्धि श्रद्धा से व्याप्त हो गयी। अतः कुमार ने मुनि के पास श्रावक धर्म अंगीकार किया। कल्पवृक्ष के समान दुर्लभ धर्म को पाकर कुमार वाचा से अकथनीय आनंद को प्राप्त हुआ। फिर कृतार्थ हुए मुनि भी फिर से ध्यान में लीन हो गये। महात्मा आत्महित में लेशमात्र भी प्रमाद नहीं करते। कुमार को श्रावक धर्म अंगीकार करते देखकर विद्याधर भी अत्यन्त आनन्दित हुआ। साधर्मिक होने के कारण उस कुमार पर अत्यन्त स्नेहभाव धारण करके उसे विष, कामण, भूतादि बड़े-बड़े दोषों का नाश करनेवाली गुटिका प्रदान की। अत्यन्त आग्रह के कारण कुमार ने गुटिका स्वीकार की। "अहो! धर्म का कैसा माहात्मय! अहो! उपकार करने की कैसी श्लाघनीय बुद्धि!"-ऐसा विचार करके कुमार विस्मय को प्राप्त हुआ। फिर वह साधर्मिक कुमार के साथ धर्म-संबंधी बातचीत करके विद्याधरी के साथ अपने स्थान पर लौट गया। देदीप्यमान रूपलक्ष्मी से युक्त कुमार भी तीर्थराज पर से नीचे उतरा। विविध प्रकार के आश्चर्य से युक्त पृथ्वी को देखते हुए पश्चिमी समुद्र के किनारे की पृथ्वी रूपी स्त्री के मस्तक के आभूषण रूपी रत्नपुर नामक नगर में आया। उस नगर में रूप की संपत्ति की मंजूषा के समान और देवांगनाओं को तृणवत् माननेवाली मदनमंजूषा नामक गणिका रहती थी। उसने अत्यन्त देदीप्यमान शृंगारयुक्त कामदेव के समान कुमार को अपने घर के पास से जाते हुए देखा, तो विचार किया-"इस युवक का मुख सौंदर्य की सम्पदा के द्वारा पूर्णचन्द्र को भी दास बना रहा है। काला कमल इसके नेत्रों का निर्माल्य हो-ऐसा प्रतीत होता है। इसका वक्षस्थल मनोहर नेत्रोंवाली स्त्रियों को क्रीड़ा करने के लिए स्वर्णशिला के समान है। इसके दोनों स्कन्ध स्वर्णकलश के समान
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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