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________________ 146/ श्री दान-प्रदीप हों। हे कुंथुस्वामी! मुझे विशाल मोक्ष रूपी राज्य दिलाओ। हे अरनाथ प्रमु! मुझे लक्ष्मी प्रदान करें। हे मल्लिनाथ! मेरे कल्याण का विस्तार करें। हे मुनिसुव्रतस्वामी! मुझे श्रेष्ठ व्रत प्रदान करें। हे नमिनाथ! मैं आपको कपटरहित नमस्कार करता हूं। हे पार्श्वनाथ! मुझे शाश्वत लक्ष्मी अर्थात् मोक्ष प्रदान करें। इस प्रकार सम्मेतशिखर पर स्तुति किये हुए बीसों ही जिनेश्वर मुझ पर प्रसन्न होकर सौभाग्य, आरोग्य और सम्पदा प्रदान करें।" फिर स्थूमों से कुछ दूर जाकर अपनी आत्मा को कृतार्थ मानकर वह कुमार दुःखगर्भित वैराग्य के कारण चित्त में विचार करने लगा-"आज मुझे मनुष्य जन्म का फल मिला है। आज मुझे दुर्गति में गिरने का भय नहीं रहा। आज मेरी इस कुत्सित देह की सार्थकता हुई है। अब मेरी विडम्बना करनेवाली इस देह से मेरा क्या प्रयोजन? निरस गन्ने की तरह इसका त्याग करना ही अब उचित है।" इस प्रकार विचार करके मरने की इच्छा से एक उच्च शिखर पर वह चढ़ गया। तभी समीप के एक वन में रहे हुए ध्यानस्थ मुनि पर उसकी दृष्टि पड़ी। उसने विचार किया-"अहो! इन मुनि की शांतता! अहो! इनका निःसंग चित्त! अहो! इनकी ध्यान की एकाग्रता! अहो! इनका संसार से वैराग्य कितना आश्चर्यकारक है! इन मुनि के दर्शन मात्र से ही मेरे नेत्र सफल हो गये हैं, तो अब इनको वंदन करके मेरी अपवित्र देह को भी सफल बना लूं। मरना तो मेरे ही आधीन है। मैं बाद में भी मर सकता हूं।" ___ऐसा विचार करके सुंदर भावयुक्त और पुण्य के द्वारा विकस्वर बुद्धि से युक्त वह तारचन्द्र नीचे उतरा। वन में उन मुनि के पास जाकर भक्तिपूर्वक उन्हें वंदन किया। कुछ समय उनके पास बैठकर निर्मल चित्तयुक्त होकर वह जैसे ही उठकर जाने लगा, वैसे ही किसी दिशा से विद्याधर दम्पति आकर मुनि को नमस्कार करके वहां बैठ गये। उन्हें देखकर तारचन्द्र विस्मय को प्राप्त हुआ। उसने उनसे पूछा-"आपलोग कौन हैं? कहां रहते हैं? यहां आने का क्या प्रयोजन है? ये मुनिराज कौन हैं? तब विद्याधर ने कहा-"हम विद्याधर दम्पति हैं। वैताढ्य पर्वत पर रहते हैं। इन मुनिराज को भावपूर्वक वंदन करने के लिए हम यहां आये हैं। इन मुनि का चरित्र चित्त को चमत्कृत करनेवाला है। तुम सुनो वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी को पालनेवाला वज्रवेग नामक राजा विद्याधरों के कुल में कौस्तुभ मणि के समान था। उसे अनेक महाविद्याएँ सिद्ध थीं। उसका सौन्दर्य कामदेव को जीतनेवाला था। उसने अपने रूप की लक्ष्मी के द्वारा अप्सरा जैसी युवतियों के साथ विवाह
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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